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________________ २८२ दान : अमृतमयी परंपरा हुए भी उस दानान्तराय कर्मबन्धन के फलस्वरूप दान नहीं कर सकता; सत्कार्यों में खर्च नहीं सकता। दान देने का पश्चात्ताप उसे ही होता है, जो व्यक्ति अनुदार हो, अपने विषयसुखों या दैहिक सुविधाओं के प्रति आसक्त हो । अतः विधियुक्त दान के लिए पूर्वोक्त ५ दूषणों से बचना चाहिए। जैसे दान के पाँच दूषण बताये, वैसे ही विधियुक्त दान के लिए दान के पाँच भूषण भी जैनाचार्य ने इस प्रकार बताये हैं - "आनन्दाश्रूणि रोमाञ्चो, बहुमानं प्रियं वचः । तथाऽनुमोदना पात्रे दानभूषण-पञ्चकम् ॥" . दान देते समय आनन्दातिरेक से आँसू उमड़ आना, पात्र को देखते ही रोमाञ्च हो जाना, आदाता (पात्र) का बहुमान करना, प्रिय वचनों से उसका स्वागत-सत्कार करना तथा दान के योग्य पात्र का अनुमोदन (समर्थन) करना, ताकि दूसरों को उसे दान देने की प्रेरणा मिले; ये दान के पाँच भूषण हैं । इनसे दान की शोभा बढ़ती है। दान में विशेषता (चमक) आ जाती है। अन्तकृद्दशांगसूत्र में वर्णन आता है कि जिस सुलसा के यहाँ पले-पुसे मुनि बने हुए देवकी महारानी के छह पुत्र दो-दो युगल में बार-बार उसी के यहा भिक्षा के लिए आये तो उनके बार-बार आने का भ्रम होने पर भी देवकी ने मुनियों को आहार देने में किसी प्रकार की अरुचि नहीं दिखाई, बल्कि अत्यन्त उमंग और उत्साहपूर्वक मुनियों के तीनों युगलों को आहार दिया । बल्कि उनको आहार देते समय हर्ष उमड़ता था। मुनियों को अपने राजमहल की ओर आते देखकर देवकी के मन में आनन्द की लहर पैदा हो आई और वह अपने सिंहासन से उठकर स्वयं सात-आठ कदम सामने जाकर उनका स्वागत किया और अत्यन्त श्रद्धाभक्ति के साथ उन्हें भोजनगृह में पधारने की प्रार्थना करके उसने सिंह केसरिया मोदक उनके भिक्षापात्र में दिये । इस प्रकार दान देने से पहले, देने के बाद और देते समय बहुत उच्च भावना थी । हृदय में उसके हर्ष नहीं समा रहा था। वह अपने को धन्य मान रही थी। १. अन्तकृद्दशांगसूत्र, वर्ग ३
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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