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दान : अमृतमयी परंपरा एकमात्र वस्त्र हाथ में लेकर अनाथपिण्ड से कहा- “लो यह सर्वस्वदान लो । अपने गुरु महात्मा बुद्ध को दो, उनकी इच्छापूर्ण करो।" अनाथापिण्ड ने उस स्त्री का दिया हुआ वह वस्त्र हर्षपूर्वक अपने पात्र में लिया और गद्गद होकर उससे कहने लगा- "माता ! आपकी तरह सर्वस्वदान देने वाला संसार में और कौन होगा ? एक मात्र वस्त्र, जो आपके पास लज्जा निवारणार्थ था, उसे भी आपने उतारकर स्वयं तरुकोटर में प्रवेश करके दे दिया । यही आपको सर्वस्व था। मुझे बहुमूल्य वस्त्राभूषण, रत्न आदि देने वाले अनेक दाता मिले, लेकिन वह सर्वस्वदान न था । परन्तु आपको धन्य है, आपने सर्वस्वदान दे दिया।" इस प्रकार उस महिला की प्रशंसा करके अनाथपिण्ड तथागत बुद्ध के पास पहुचा और कहा - "भंते ! यह लीजिए, सर्वस्वदान ।" और उसने कौशाम्बी नगरी में सर्वस्वदान न मिलने और वन में एक महिला द्वारा सर्वस्वदान मिलने
का आद्योपान्त वृत्तान्त सुनाया । बुद्ध उस वस्त्र को पाकर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने वह वस्त्र मस्तक पर चढ़ाकर कहा- "मेरी प्रतिज्ञा अब पूर्ण हुई । अब मैं लोगों को अवश्य ही वह ज्ञान सुनाऊँगा, जो मुझे प्राप्त हुआ है।"
वास्तव में इस प्रकार के सर्वस्वदान को ही पूर्वोक्त गुण से युक्त विधिवत् दान माना गया है। इसी प्रकार का दान एक गरीब वृद्धा के हाथ से बुद्ध को आहारदान था। इस दान के पीछे भी न कोई प्रसिद्धि थी, न प्रतिष्ठा पाने की दौड़ थी और न ही कोई स्वार्थ सिद्धि की तमन्ना थी।
तथागत बुद्ध राजगृह में पधार रहे थे सभी नर-नारी प्रफुल्लित होकर उनकी अगवानी के लिए खड़े थे । बुद्ध धर्म और संघ की शरण के स्वर से आकाश गूंज रहा था । बुद्ध के आगे-पीछे सैकड़ों श्रेष्ठी, राजपुत्र और राजा आदि विनीत मुद्रा में चल रहे थे । नगर के द्वार पर सम्राट बिम्बसार ने हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए उनका स्वागत किया और प्रार्थना की - "भंते ! आज के भोजन के लिए मेरे यहाँ पधारने की स्वीकृति दीजिए।" तथागत बुद्ध ने कहा"राजन् ! भिक्षुओं को जहाँ तक सम्भव हो, किसी के घर पर बैठकर भोजन नहीं करना चाहिए । न एक घर से सारी भिक्षा-सामग्री ही लेनी चाहिए। हम लोग सार्वजनिक भिक्षाटन के लिए आयेंगे, उस समय आप भी कुछ दे दें।"
इसी नगर में एक गरीब वृद्धा रहती थी। उसने महात्मा बुद्ध का नाम