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दान : अमृतमयी परंपरा दान देते समय पात्र के सम्बन्ध में विचार करना भी अत्यन्त आवश्यक है, ताकि दान देने के पश्चात् पश्चात्ताप करने और सुपात्र या पात्र के प्रति भी अथवा दान देने के प्रति भी अश्रद्धा प्रगट करने का अवसर न आये । महाभारत में उसी दान को अनन्त कहा गया है जो देश, काल, न्यायागत धन और पात्र को दिया गया है।
रत्नसार में बताया गया है कि सत्पुरुषों को यथाविधि दिया गया दान कल्पवृक्ष के समान फलप्रद होता है और कुपात्रों को दिया गया दान शव के विमान को श्रृंगारित करने के समान शोभा देने वाला यानी क्षणिक कीर्ति दिलाने वाला होता है, विशेष लाभ का कारण नहीं होता।,
सुपात्रदान से लौकिक और लोकोत्तर सभी प्रकार के सुख साधन प्राप्त होते हैं । सुपात्रदान देने वाला व्यक्ति उस समय अल्प धन होते हुए मन में निर्धनता महसूस नहीं करता । जैसे बादल एकदम बरसकर खाली हो जाते हैं, सारा का सारा पानी वर्षा कर देने पर भी वे अपने में भरे के भरे रहते हैं, उसी प्रकार सुपात्रदान देने वाला प्रचुर दान या सर्वस्वदान दे देने पर भी जीवन में रिक्तता या अभाव का अनुभव नहीं करता । इसीलिए ऐसे महान् सुपात्रदाता को दान देने के पश्चात् कभी ग्लानि या पश्चात्ताप नहीं होता और न ही अपने आपको कष्ट महसूस होता है, क्योंकि वह दूसरों को भरा देखकर स्वयं प्रसन्न होता है। इसीलिए अमितगति श्रावकाचार में कहा है - जो सम्यग् दृष्टि होते हैं, वे अगर उच्च भावों से सुपात्र को विधिपूर्वक दान करते हैं तो वे समाधिपूर्वक मरकर अच्युतपर्यन्त देवलोक की दिव्यभूमि में उत्पन्न होते हैं ।
सम्यग्दृष्टि के द्वारा प्रदत्त सुपात्रदान निराला ही होता है । उसकी हृदयभूमि में उदारता की उत्तुंग तरंगें उछलती रहती है।
वास्तव में सुपात्रदान देने वाला स्वयं तो इन फलों के चक्कर में पड़ता नहीं, न वह फल प्राप्ति के लिए उतावला और अधीर ही होता है, वह तो कर्मयोगी की तरह सुपात्र को देखते ही जो उनके ग्रहण करने योग्य होता है, वह सब कुछ उनको दे देता है, फल की ओर आँखें उठाकर भी नहीं देखता । १. अमितगति श्रावकाचार ११/१०२ २. वसु. श्रा. २४९