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दान की विशेषता
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आचारांगसूत्र की टीका (श्रु. १, उ.८, सूत्र २) में भी इस विषय में प्रकाश डाला गया है -
“दुःख समुद्रं प्राज्ञास्तरन्ति पात्रावितेन दानेन ।
लघुनैव मकरनिलयं वणिजः सद्यानपात्रेण ॥"
- जैसे वणिक लोग छोटे-से अच्छे दानपात्र से समुद्र को पार कर लेते हैं, वैसे ही प्राज्ञजन पात्र को दिये हुए दान के प्रभाव से दुःख समुद्र को पार कर लेते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि ' ऊसर भूमि में बोये हुए अच्छे से अच्छे बीज निष्फल चले जाते हैं, वैसे ही कुपात्रों को दिया हुआ दान निष्फल जाता है। अपात्र में दिया हुआ दान सात कुल तक का नाश कर देता है, क्योंकि सर्प को पिलाया हुआ दूध आखिरकार जहर ही हो जाता है। .. वास्तव में अपात्र या कुपात्र को दिया हुआ दान न तो दाता को लौकिक लाभ दिलाता है, न लोकोत्तर ही । अपात्रदान से प्रायः पुण्यबंध भी नहीं
होता।
- अभिधान राजेन्द्र कोष में पात्र तीन प्रकार के बताये हैं - १. मुनि, २. श्रावक, और ३. सम्यग्दृष्टि । इन तीनों प्रकार के पात्रों को दान देना, उनके गुणों की प्रशंसा करना, औचित्य तथा अनतिक्रम की वृद्धि (दृष्टि) से यही दान सर्वसम्पत्कर माना गया है।
अमितगतिश्रावकाचार (परि. ११)में कहा गया है - "जो व्यक्ति असंयतात्मा को दान देकर पुण्यफल की इच्छा करता है, वह जलती हुई अग्नि में बीज डालकर धान्य उत्पन्न करने की स्पृहा करता है। जो व्यक्ति कुपात्र हैं या अपात्र हैं, हिंसा आदि विपरीत मार्ग पर चलते हैं, उन्हें कोई दाता, चाहे कितनी ही शुद्ध भावना से दान देता है, किन्तु वे कुपात्र या अपात्र तो अपनी आदत एवं प्रकृति के अनुसार उलटे ही रास्ते चलकर अपराधी बनते हैं।२ १. सुबीजमूषरे यद्वदुप्तं नैव प्रेरोहति । तद्वद्दतं कुपात्रेषु दानं भवति निष्फलम् ॥१५९॥ अपात्रे चापि यद्दानं दहत्यासप्तमं कुलम् ।
दुग्धं हि दंदशूकाय विषमेव प्रजायते ॥१६०॥ - धर्मसर्वस्वाधिका २. अ. श्रा., प. ११