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दान : अमृतमयी परंपरा हरिवंशपुराण, अमितगति श्रावकाचार एवं वसुनन्दि श्रावकाचार में इस सम्बन्ध में काफी चिन्तन मिलता है- जिस प्रकार नीम के वृक्ष में पड़ा हुआ पानी कड़वा हो जाता है, कोदों में दिया हुआ पानी मदकारक हो जाता है और सर्प के मुख में पड़ा हुआ दूध विष हो जाता है; उसी प्रकार अपात्र में दिया हुआ दान विपरीत रूप में परिणत हो जाता है, विपरीत फल लाता है। इसीलिए महर्षि व्यास ने कहा है - पात्र और अपात्र में गाय और साप जितना अन्तर है। गाय को खिलाये हुए तुच्छ घास के तिनकों से दूध बनता है और साँप को पिलाये हुए दूध से जहर बनता है। नीतिवाक्यामृत में भी कहा है कि अपात्र में धन खर्च करना राख में हवन करने के समान है । याज्ञवल्क्यस्मृति में भी पात्रापात्रविवेक के विषय में चिन्तन मिलता है - एक ही भूमि और एक ही पानी होने पर भी नीम और आम में जो अन्तर है, वह बीज रूप पांत्र की ही विशेषता है।
इस सम्बन्ध में प्रश्न यह उठता है कि थोड़ी मात्रा में तुच्छ वस्तु के दान से इतना विशिष्ट फल कैसे प्राप्त हो जाता है ? जबकि बहुत अधिक मात्रा में बहुमूल्य वस्तु के दान से अत्यल्य फल प्राप्त क्यों होता है, इसके उत्तर में हम आचार्य समन्तभद्र के रत्नकरण्डकश्रावकाचार, वसुनन्दिश्रावकाचार एवं चारित्रसार का चिन्तन प्रस्तुत करते हैं ?५ - पात्र में दिया हुआ थोड़ा सा तुच्छ दान भी समय पर भूमि में बोये हुए वट-बीज से छाया वैभव से सम्पन्न हुए विशाल वटवृक्ष की तरह मनोवांछित महाफल दाताओं को देता है। १. (क) अम्बु निम्बद्रुमे रौद्रं क्रोद्रवे मदकृत् यथा । '
विषं व्यालमुखे क्षीरमपात्रे पतितं तथा ॥११८॥ - हरिवंशपुराण (ख) जह ऊसरम्मि खेत्ते पइण्णबीयं न किंपि रुहेइ ।
फलावाज्जियं वियाणइ अपत्तदिण्णं तहादाणं ॥२४२॥ - वसुनन्दिश्रावकाचार २. पात्रापात्र विवेकोऽस्ति, धेनु-पन्नगयोरिव ।
तृणात्संजायते क्षीरं, क्षीरात्संजायते विषम् ॥ - महर्षि व्यास ३. भस्मनि हुतमिवापात्रेष्वार्थव्ययः । - नीतिवाक्यामृत १/११ ४. सैव भूमिस्तदेवाम्भः पश्य पात्र विशेषता । – याज्ञवल्क्यस्मृति ५. क्षितिगतमिव वटबीजं, पात्रगतं दानमल्पमपि काले।
फलति च्छाया विभवं, बहुफलमिष्टं सरीरभृताम् ॥ र.क.श्रा. ११६