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________________ दान की विशेषता २५१ खा लिया है उसे और अधिक लूंस-ठूसकर खिलाने से क्या लाभ? जो बेचारा भूखा हो, क्षुधा-पीड़ित हो उसे ही आहारदान देना सफल है । इसी प्रकार जो व्यक्ति दीन-हीन, अभाव-पीड़ित हो उसे ही देने से लाभ है। इसलिए दान की विधि में यह विवेक भी समाविष्ट है कि किसको, किस वस्तु की, कितनी मात्रा में और किस रूप में आवश्यकता है। जैसे राजहंस के सामने मोती के दाने रखने पर ही वह सेवन करेगा, वह चाहे भूखा होगा, तो भी अन्य अन्नकण नहीं खाएगा। इसी प्रकार चातक चाहे जितना प्यासा हो, स्वाति नक्षत्र का जल-बिन्दु ही पीएगा। इसी प्रकार पंचमहाव्रतधारी मुनिवर अपनी साधु मर्यादानुसार कल्पनीय, स्व-प्रकृति अनुकूल एवं सीमित मात्रा में ही अमुक विधि से ही आहार ग्रहण करते हैं। महाव्रती साधु के लिए तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य में स्पष्ट कहा है - "न्यायागतानां कल्पनीयामन्नापानादीनां द्रव्याणां दानम् ।'. - महाव्रती साधु-साध्वियों को न्याय प्राप्त कल्पनीय अन्न, पानी आदि द्रव्यों का दान देना चाहिए। ___इसी प्रकार आचार्य अमितगति ने श्रावकाचार में इस विषय में प्रकाश डाला है - __ "साधु-साध्वियों को वस्त्र, पात्र, उपाश्रय आदि अन्य वस्तुएँ भी यथोचित रूप में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की वृद्धि के लिए विधिपूर्वक देना चाहिए।" कई बार व्यक्ति दान तो देता है, किन्तु अनुचित कार्य के लिए देखादेखी या शर्माशी लिहाज में आकर दे देता है, यह उचित नहीं । इसीलिए यहूदी धर्मग्रन्थ मिदराश निर्गमन (रब्ब ३१/१८) में इस अविधियुक्त दान को गलत बताया है - "अनुचित काम करने के लिए एवं अपने स्वार्थ या सुख-सुविधा के लिए दान देना गलत है।" महाभारत के शान्तिपर्व (३६/३६) में भी धार्मिक और विवेकी व्यक्ति को दान विधि के विषय में स्पष्ट चेतावनी दी है - "न दधाद यशसे दानं, न भयान्नापकारिणे । न नृत्यगतिशीलेषु, हासकेषु न धार्मिकः ॥"
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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