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दान : अमृतमयी परंपरा
महात्मा बुद्ध ने आवश्यक समय पर दान देने का अत्यन्त महत्त्व बताया है। इसीलिए उन्होंने दान के भेदों में कालदान का अलग से उल्लेख किया है और उसके ४ प्रकार बताये हैं - (१) आगन्तुक को दान देना, (२) जाने वाले को दान देना, (३) ग्लान (रोगी, वृद्ध, अशक्त) को दान देना, और (४) दुर्भिक्ष के समय दान देना ।
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इसलिए समय पर दिया हुआ दान सविधिदान है और समय बीत जाने पर फिर दान देना अविधियुक्त दान है । कथासरित्सागर में समय पर दान देने को श्रेष्ठ बताया है.
“काले दत्तं वरं ह्यल्पमकाले बहुनाऽपि किम ?"
समय पर दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान श्रेष्ठ है, जबकि बिना समय बहुत देने से भी क्या लाभ है ?
इसी प्रकार किसको, किस पदार्थ की, कितनी मात्रा में जरूरत है, इसका विवेक करना विधियुक्त दान है और इसका विवेक न करना अविधियुक्त दान है। जैसे भगवान ऋषभदेव मुनि-रूप में जब आहार के लिए भिक्षाटन कर रहे थे, उस समय अयोध्या की जनता ने दानविधि न जानने के कारण उन्हें जिस वस्तु की जरूरत नहीं थी, जो चीज उनके लिए ग्राह्य नहीं थी, ऐसी-ऐसी चीजें - हाथी, घोड़ा, रथ, अलंकृत कन्या आदि या सुन्दर आभूषण, हीरे-मोती आदि लाकर भेंट (दान) करने लगे । किन्तु उन सब चीजों की उन्हें न तो जरूरत थी और न उनके लिए वे कल्पनीय थीं, इस कारण उन्होंने उन्हें ग्रहण नहीं किया और आगे बढ़ गये । इसलिए विधियुक्त दान में यह विवेक होना चाहिए कि किस व्यक्ति को किस चीज की जरूरत है और कितनी मात्रा में जरूरत है । इसी प्रकार जहाँ जिसको जिस पदार्थ की जरूरत नहीं, वहाँ उसे अधिकाधिक देना भी दान का अविवेक है । जैसा कि महाभारत में कहा है
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“मरुस्थल्यां यथावृष्टिः, क्षुधार्ते भोजनं यथा । दरिद्रे दीयते दानं सफलं पाण्डुनन्दन ॥"
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- जहाँ पानी से लबालब जलाशय भरे हों, वहाँ वर्षा व्यर्थ है, वर्षा का
उपयोग मरुभूमि में है, जहाँ सुखी धरती है। इसी प्रकार जिसने पहले ही भरपेट