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________________ दान की विशेषता २४९ - गुणवान पात्र को उचित समय पर शास्त्रोक्त विधिपूर्वक दान देना चाहिए। प्रश्न उठता है कि दान में विधि शब्द का प्रयोग किन-किन अर्थों में हुआ है ? विधि से व्युत्पत्ति से अर्थ होता है - विशेष रूप से धारण करनाग्रहण करना या बुद्धि लगाना । तात्पर्य यह है कि विशेष रूप से विवेक करना विधि है। किस व्यक्ति या संस्था को, कब कितना और किस पदार्थ का दान करना है तथा किस व्यक्ति को कब, क्यों, कितना और किस पदार्थ का दान नहीं करना है? यह दान की विधि है । भगवद्गीता में अविधिपूर्वक दिये गये दान को तामसदान बतलाया है - . “अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥" . - जो दान अनुचित देश और काल में तथा अपात्रों को दिया जाता है, तिरस्कार और अवज्ञापूर्वक दिया जाता है, उसे तामसदान कहा गया है। जिस देश में दुष्काल पड़ा है, जहाँ लोग भूख से छटपटा रहे हैं वहा तो अन्न का एक दाना भी नहीं देना और जहाँ सुकाल है, लोग खा-पीकर सुखी हैं, वहाँ अपनी प्रसिद्धि के लिए हजारों मन अन्न लुटा देना - अविधि पूर्वक दान है। उदाहरण के लिए - तथागत बुद्ध के समय में एक बार श्रावस्ती में दुष्काल पड़ गया था, उस समय बुद्ध के साधुओं को अन्य सुभिक्षयुक्त प्रदेश में भोजन देने के लिए प्रसिद्धि लूटने हेतु कई श्रेष्ठी तैयार थे, लेकिन जब बुद्ध के शिष्य आनन्द ने दुष्काल पीड़ित क्षेत्र में क्षुधा-पीड़ित को अन्न देने के लिए कहा तो केवल तेरह वर्ष की एक लड़की सुप्रिया के सिवाय कोई भी तैयार न हुआ । एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है - "Liberality does not consist in giving much, but in giving at the right moment." - बहुत अधिक देने से उदारत सिद्ध नहीं होती, किन्तु ठीक अवसर पर आवश्यकता के क्षणों में सहायता प्रदान करना ही सच्ची उदारता है।
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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