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दान : अमृतमयी परंपरा लाता है -
"दानं सत्पुरुषेय स्वल्पमपि गुणाधिकेषु विनयेन । वटकणिकेव महान्तं न्यग्रोधं सत्फलं कुरुते ॥ न्यायात्तं स्वल्पमपि हि भृत्यानुपरोधतो महादानम् । ..
दीन-तपस्व्यादौ गुर्वनुज्ञया दानमन्यत् तु ॥"
- गुणों में अधिक सत्पुरुषों को विनयपूर्वक दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान सत्फल प्राप्त कराता है। जैसे वट-वृक्ष का छोटा सा बोया हुआ बीज एक. दिन महान् वट-वृक्ष के रूप में सत्फलीभूत हो जाता है । न्याय से उपार्जित थोड़ा-सा भी दान अपने आश्रितों के भरण-पोषण के लिए देने के बाद अपने परिवार के बड़ों की आज्ञा से दीन, तपस्वी आदि को दिया जाता है तो वह भी महादान है। इससे भिन्न जो दिया जाता है, वह केवल दान है।
___ भगवद्गीता में भी सात्त्विकदान के लक्षणों में बताया गया है कि देश, काल और पात्र को देखकर निःस्वार्थ भाव से दिया गया दान ही वास्तव में सच्चा दान है। महाभारत में ऐसे दान को ही अनन्त फल जनक कहा गया है, जो उक्त चारों अंगों से परिपूर्ण है। देखिये यह श्लोक
"काले पात्रे तथा देशे, धनं न्यायागतं तथा ।
यद् दत्तं ब्राह्मणश्रेष्ठा स्तदनन्तं प्रकीर्तितम् ॥" - जो द्रव्य (धन या साधन) न्यायोपार्जित हो और योग्य देश, काल और पात्र में दिया जाता हो, हे विप्रवरो ! वही दान अनन्त (अनन्त गुना फल देने वाला) कहलाता है।
दान का फल चाहना या बदले की आकांक्षा रखना दान नहीं, एक प्रकार की सौदेबाजी है, व्यापार है। और यह सौदा भी तो घाटे का सौदा है। अगर उतनी ही मात्रा में या अल्प मात्रा में भी वही वस्तु किसी प्रकार के फल की आकांक्षा किये बिना लोभरहित होकर किसी योग्य पात्र को विधिपूर्वक देता तो उस दान का यथेष्ट और पर्याप्त फल मिलता। इसीलिए दक्षस्मृति (३/२५) में विधिपूर्वक दान देने की स्पष्ट प्रेरणा दी गई है -
"दानं हि विधिना देयं, काले पात्रे गुणान्विते ।"