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दान की विशेषता
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उस समय राजा प्रसेनजित् उनके दर्शनार्थ आया । बातचीत के सिलसिले में तथागत बुद्ध से राजा प्रसेनजित् के इस प्रकार प्रश्नोत्तर हुए
प्रसेनजित् – "भंते ! किसे दान देना चाहिए ?" बुद्ध - "राजन् ! जिसके मन में श्रद्धा हो ।"
प्रसेनजित् – “भंते ! किसको दान देने से महाफल होता है ?" बुद्ध - " राजन ! शीलवान को दिए गए दान का महाफल होता है ।"
दान में चार तत्त्वों से विशेषता :
जैसे जैनसूत्रों में द्रव्यशुद्धि, दाता की शुद्धि और पात्रशुद्धि इस शुद्धित्रय की दान में विशेष अपेक्षा रखी गई है वैसे ही तत्त्वार्थसूत्रकार आदि आचार्यों ने उसी के विशद रूप में दान की विशेषता के लिए चार तत्त्वों का होना आवश्यक माना है – (१) विधि, (२) द्रव्य, (३) दाता, और (४) पात्र । यद्यपि पूर्वोक्त तीनों तत्त्वों में ही ये चार तत्त्व आजाते हैं, फिर भी इन चारों का सम्यक् विचार करके दिया गया दान लाभ की दृष्टि से भी उत्तम होता है और वह दूसरों के लिए आदर्श प्रकाशमान दान बनता है । इन चारों की शुद्धता से मतलब है - चारों किसी स्वार्थ, पक्षपात, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, फलाकांक्षा, निदान या अन्य किसी अनादर, क्रोध आदि दोषों से दूषित न हो ।
एक जैनाचार्य ने कहा है
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"केसि च होइ वित्तं, चित्तं केसिंपि उभयमन्नेसिं चित्तं वित्तं च पत्तं च, निन्नि लभंति पुण्णेहिं ॥”
कई लोगों के पास धन या देय द्रव्य तो होता है, परन्तु उनका चित्त इतना उदार या दान के लिए उत्साहित नहीं होता । कई लोगों के पास दिल उदार और उत्साहित होता है, उनके हृदय में दान देने की श्रद्धा और भावनाएँ उमड़ती है, लेकिन उनके पास देने को द्रव्य या साधन नहीं होता ।
तात्पर्य यह है कि चित्त, वित्त और पात्र की शुद्धि होनी चाहिए । इसीलिए आचारांगसूत्र की टीका में बताया गया है कि विधि, द्रव्य, दाता और पात्र चारों अंगों के सहित दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान विशिष्ट फल