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________________ २४६ दान : अमृतमयी परंपरा पहले, आहार देते समय और आहार देने के बाद तीनों समय सुमुख गृहपति के चित्त में अतीव प्रसन्नता और सन्तुष्टि थी । उसके बाद उस सुमुख गृहपति ने उक्त दान में द्रव्यशुद्धि, दाता की शुद्धि और पात्र की शुद्धि इस प्रकार मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप त्रिकरण शुद्धिपूर्वक सुदत्त नामक अनगार को प्रतिलाभित करने ( दान देने) से अपना संसार (जन्म-मरण का चक्र) सीमित कर लिया । मनुष्यायु का बंध किया। उसके घर में ये पाँच दिव्य प्रादुर्भुत हुए धन की धारा की वर्षा हुई, पांच वर्ण की पुष्पवृष्टि हुई, देवों ने वस्त्र भी आकाश से डाले, देवदुन्दुभियाँ बजी और बीच-बीच में आकाश से अहोदानं - अहोदानं की घोषणा भी की । - जैनशास्त्रों में इस प्रकार के विशिष्ट लाभों का वर्णन करने वाले अनेक उदाहरण विद्यमान हैं। परन्तु उन सबमें सिर्फ दाता और पात्र के नाम अलगअलग हैं या देय द्रव्य भिन्न भिन्न हैं, किन्तु उसके कारण प्राप्त होने वाले दान के फल में कोई अन्तर नहीं है I भगवतीसूत्र शतक १४ में विधिपूर्वक दान का इसी रूप में निरूपण किया है - - द्रव्य (देय वस्तु) की पवित्रता से, दाता की पवित्रता से और पात्र (दान लेनेवाले) की पवित्रता से मन-वचन-काया के योगपूर्वक त्रिकरण शुद्धि से दान देने से दान में विशेषता पैदा होती है । २ तात्पर्य यह है कि देय वस्तु, दाता, पात्र एवं विधि इनमें से एक भी दूषित हो या न्यून हो तो दान में चमक पैदा नहीं होती । दान में चमक आती है, उक्त तीनों की निर्मलता से । बौद्ध धर्मशास्त्र संयुक्तनिकाय के इसत्थसूत्र ( ३/३/४) में भी दान के तीन उपकरण माने गए हैं - (१) दान की इच्छा, (२) दान की वस्तु, (३) दान लेनेवाला । एक बार तथागत बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन के विहार में विराजित थे । १. सुखविपाकसूत्र २. दव्वसुद्धेणं दायगसुद्देणं पडिग्गहसुद्देणं तिहिणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं.. । भगवतीसूत्र शतक १४
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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