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दान : अमृतमयी परंपरा - धार्मिक पुरुष को यशकीर्ति के लिए दान न देना चाहिए, न ही किसी भय से भयभीत होकर देना चाहिए । इसी प्रकार अपने या दूसरे का अपकार (बुरा) करने वाले नाचने-गाने वालों, विदूषकों (हँसाने वाले भाँडों) को दान नहीं देना चाहिए।
इन सबके विपरीत बिना किसी यशोलिप्सा प्रतिष्ठा, पद एवं सत्ता की लालसा के किसी स्वार्थ एवं आकांक्षा से रहित होकर निर्भय एवं निश्चिन्त होकर प्रसन्नतापूर्वक दान देना दान की विधि है।
दान के साथ नाम और प्रतिष्ठा की आसक्ति भी दाता को पतन की ओर ले जाती है। इस सम्बन्ध में ज्ञाताधर्मकथासूत्र में उल्लिखित नंदनमणिहार का प्रसंग गम्भीरतापूर्वक विचारणीय है । नन्दनमणिहार ने प्याऊ, धर्मशाला, पथिकशाला, वापिका आदि सत्कार्यों में बहुत-सा धन दान किया था। परन्तु उसे भी इसी प्रकार अपनी बड़ाई और प्रसिद्धि की आसक्ति लगी । जिसके फलस्वरूप वह मरकर अपनी ही बनाई हुई पापिका में मेंढक बना । यह उसके दान का फल नहीं था, अपितु दान के साथ आसक्ति का फल था। . कार्तिकेयानुप्रेक्षा (२०) में इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रेरणा दी गई है -
"एवं जो जाणिता विहलिय लोयाण धम्मजुत्ताणं ।
णिरवेक्खो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥"
- इस प्रकार लक्ष्मी को अनित्य जानकर जो निर्धन और धर्मात्मा व्यक्तियों को देता है, बदले में किसी प्रत्युपकार की वांछा नहीं करता, उसी का जीवन सफल है। भारतीय संस्कृति के प्रबुद्ध तत्त्वचिन्तक स्पष्ट शब्दों में कहते हैं -
__ "न दत्त्वा परिकीर्तयेत् ।" दान देकर उसका बखान मत करो । फारसी में एक कहावत है कि "दान इस प्रकार दो कि दाहिना हाथ दे और बाँया हाथ न जाने।" मनुस्मृति में तो इस प्रकार दान का ढिंढोरा पीटने से उसका फल नष्ट होने की बात कही है -
• "यज्ञोऽनृतेन क्षरति, तपः क्षरति विस्मयात् । आयुर्विप्रापवादेन, दानं च परिकीर्तनात् ॥"