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श्रदेय गुरुवर्य श्री राजेशभाई । मिस्किन साहब की मैं अत्यन्त आभारी हूँ। यह लेखन कार्य काफी समय से बंद पड़ा था। उनकी सतत प्रेरणा और आशीर्वाद से इस कार्य में गति प्राप्त हुई तथा अपने परिष्कृत दृष्टिकोण से आवश्यकतानुसार हर समय मार्ग दर्शन किया । मेरी प्रार्थना स्वीकार करके इस पुस्तक के लिए आशीर्वचन लिख कर दिया। उसके लिए मैं हार्दिक आभारी
उन गुरुजनों के प्रति, जिनके व्यक्तिगत स्नेह, प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन ने मुझे इस कार्य में अभूतपूर्व सहयोग दिया है, यहाँ श्रद्धा प्रकट करना भी मेरा अनिवार्य कर्तव्य है। सौहार्द, वात्सल्य एवं संयम की मूर्ति पू. सुनंदाबहेन की मैं अत्यन्त आभारी हूँ। अपने स्वास्थ्य तथा व्यक्तिगत कार्यों की चिन्ता नहीं करते हुए भी उन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ को पूरा पढ़ा और यथावसर उसमें सुधार एवं संशोधन के लिए निर्देश भी दिया । जब भी मैं उनके पास आध्यात्मिक अभ्यास करने जाती तब पूछते प्रस्तुत कार्य में प्रगति कितनी हुई । उन्हीं की ऐसी प्रेरणा और प्रोत्साहन से 'दान' पर यह पुस्तक तैयार हो सकी । मैं नहीं. समझती हूँ कि केवल शाब्दिक आभार व्यक्त करने मात्र से मैं उनके प्रति अपने दायित्व से उऋण हो सकती हूँ। क्योंकि मुझे तत्त्वज्ञान, कर्मग्रंथ, ज्ञानसार, प्रशमरति जैसे विषय पढ़ा कर मेरी दृष्टि ही बदल दी । तथा मेरे व्यक्तित्व में भी एक खास प्रकार की आध्यात्मिक परिवर्तन की अनुभूति मुझे होने लगी। जब भी उनके सान्निध्य में रहने का मौका मिलता केवल आत्मलक्षी बातें ही होती । यह सब उनकी कृपा का ही परिणाम है कि मुझे आत्मतत्त्व का ज्ञान कराया । उनका मेरे पर कितना उपकार है ! मेरी लेखनी में इतना सामर्थ्य नहीं है कि उसका वर्णन कर सके । इसलिए उनके ऋणों का उल्लेखमात्र करती हूँ क्योंकि मेरी इच्छा है कि मैं सदैव उनकी ऋणी बनी रहूँ।
मैं अपने गुरुवर्य स्व पू. श्री भायाणी साहब की तथा मेरे स्व पू. पिताश्री एवं माताश्री की भी आभारी हूँ जिनके आशीर्वचन रूप बीज के प्रस्फुटन का ही यह साकार फल है ।