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________________ १. दान की विधि : अष्टम अध्याय - दान की विशेषता मनुष्य का लक्षण ही यह है "मत्वा कार्याणि सीव्यतीति मनुष्यः ।" जो मनन करके, विचार करके कार्य में प्रवृत्त होता है, वह मनुष्य है । इस दृष्टि से दान की क्रिया को करने से पहले भी वह यह अवश्य सोचता है कि यह दान लाभदायक होगा कि नहीं ? किस विधि से या किस प्रकार से अथवा किस रूप में, किस द्रव्य को, किसको देने से दान से अधिक लाभ हो सकता है ? इस प्रकार दान की कला और लाभ के विचार से सम्पन्न व्यक्ति उसी तरीके से दान देता है, जिससे उसके दान से अधिकाधिक लाभ हो । किसी समय वैसा सुपात्र न मिले तो अनुकम्पापात्र को भी वह दान देता है, परन्तु उसमें भी अविधि से होने वाले अलाभ से बचकर देता है, ताकि वह विधिपूर्वक दान से लाभ उठा सके। 1 दान कभी व्यर्थ तो नहीं जाता, उसका फल यहाँ भी मिलता है, वहाँ भी, लेकिन देखना यह है कि सत्कारपूर्वक विशिष्ट भावना से विशिष्ट द्रव्य का उतना ही दान देकर एक दानकला का विशेषज्ञ उस व्यक्ति से विशेष लाभ उठा सकता है। इसलिए दानकला में निपुण व्यक्ति के दान देने में और दानकला से अनभिज्ञ के दान देने में चाहे वस्तु और क्रिया में अन्तर न हो, किन्तु भावना और फल में, लाभ और विधि में अन्तर हो जाता है । इसीलिए तत्त्वार्थ सूत्र (७/३९) में आचार्य उमास्वाति ने प्रकाश डाला है - -
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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