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दान के भेद-प्रभेद
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कोमलता, उदारता, अनुकंपा आदि भावो की धारा उमड़ती है, तो आत्मप्रदेशों में निश्चित ही स्पन्दन होता है, शुभ योग की वृद्धि होती है और तब शुभ योग से पुण्यबंध भी होता है। अगर सुपात्र (संयमी) के सिवाय अन्न आदि देना पुण्यकारक न होता तो भरत चक्रवर्ती श्रावकों के लिए भोजनालय क्यों चलाते
और क्यों प्रदेशी राजा राज्य में दानशालाएँ खुलवाते । आगमों के प्राचीन उदाहरण इस बात को स्पष्ट रूप में स्वीकार करते हैं कि अनुकंपा आदि शुभ भाव के साथ दिया गया अन्नदान, पानदान, वस्त्रदान - अन्नपुण्य, पानपुण्यवस्त्रपुण्य की कोटि में आता है।
___ इसलिए नौ प्रकार के पुण्य तो सर्वसाधारण योग्य पात्र को सार्वजनिक रूप में या व्यक्तिगत रूप में दान करने से उपार्जित हो सकते हैं, होते हैं, हुए हैं।
इस अर्थ से प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किसी भी धर्म-सम्प्रदाय, जातिकौम या देश-कुल का हो, अपने स्थान या क्षेत्र में रहकर भी पुण्य उपार्जित कर सकता है। शास्त्र में जैसे पापोपार्जन के १८ प्रकार बताए हैं, वैसे ही पुण्योपार्जन के ये ९ भेद बताये हैं। इन्हीं ९ प्रकारों में संसार के सभी प्रमुख पदार्थ आ जाते हैं, जिनसे पुण्योपार्जन किया जाता है, बशर्ते कि ये ९ पदार्थ तद्योग्य पात्र को परिस्थिति देखकर दिये जाएँ इसी कारण हमने दान के प्रकारों में इन नवविध पुण्योत्पादक दानों का उल्लेख और विश्लेषण किया है।