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________________ २४२ दान : अमृतमयी परंपरा टीकाकार अभयदेवसूरि लिखते हैं - "पात्रायान्नदानाद् यस्तीर्थंकर नामादि पुण्यप्रकृतिबन्ध स्तदन्नपुण्यमेवं...... सर्वत्र...... ।"१ - पात्र को दान देने से तीर्थंकर नामकर्म आदि पुण्य प्रकृतियों का बंध होता है। अतः अन्नदान को अन्नपुण्य कहा है। वैसे ही पानदान को पानं पुण्य जानना चाहिए। जैनदर्शन अनेकान्तवादी है, वह प्रत्येक प्रश्न पर अनेकान्त दृष्टि से विचार करता है । पात्र के भी कई भेद हैं - सुपात्र, पात्र, अपात्र, कुपात्र । सुपात्र को देने से महान् फल की प्राप्ति होती है। प्राचीन आचार्यों के अनुसार तीर्थंकर, गणधर, आचार्य, स्थविर, मुनि आदि पंच महाव्रतधारी सुपात्र हैं। देशविरत गृहस्थ तथा सम्यग्दृष्टि पात्र है । दीन, करुणापात्र, अंगोपांग से हीन व्यक्ति भी पात्र है। तीर्थंकर पुण्य प्रकृति का बंध सुपात्र को देने से ही होता है। किन्तु यह . भी कोई नियम नहीं है। जब त्रिकरण शुद्धि के साथ दाता को उत्कृष्ट भावना आती है, अर्थात् भावधारा अत्यन्त शुद्ध उच्चतम श्रेणी पर चढ़ती है तभी उस दान के महाफल रूप तीर्थंकर नाम प्रकृति का बंध होता है। सामान्य भावस्थिति में शुभ कर्मों का बंध होता है जिसमें शुभ दीर्घ आयुष्य का बंध भी होता है तथा शुभ मनुष्य आयु का भी बंध होता है । इसलिए सुपात्र के सिवाय जब सामान्य पात्र (सम्यग्दृष्टि गृहस्थ या करुणा पात्र दीन व्यक्ति) को अनुकम्पा, वत्सलता, उपकार आदि कोमल भावना से प्रेरित होकर अन्न आदि का दान किया जाता है, तब वह भले ही संयम वृद्धिकारक न हो, किन्तु पुण्य वृद्धिकारक तो है ही क्योंकि हृदय में जब १. स्थानांगसूत्र, टीका ९ २. श्री नवतत्त्व प्रकरण (सुमंगला टीका, पृ. ४८) ३. वही पृष्ठ ४९ ४. (क) स्थानांगसूत्र ३/१/१२५ (ख) भगवतीसूत्र ५/६ ५. देखिए सुखविपाक; सुबाहुकुमार का प्रकरण
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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