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________________ २३२ दान : अमृतमयी परंपरा महात्मा हो सकते हैं किन्तु सामान्य रूप से एक दूसरे का न्यूनाधिक रूप से अभयदान को हम प्रासंगिक अभयदान कहते हैं । ऐसा अभयदान तो प्रायः सभी मनुष्य एक-दूसरे को दे सकते हैं। ___ इसलिए अलौकिक अभयदान वह हो सकता है, जिसमें किसी प्रकार की लौकिक आकांक्षा या आसक्ति न हो। जिस अभयदान के पीछे किसी प्रकार की नामना-कामना, प्रसिद्धि अथवा यशकीर्ति की लालसा न हो अथवा किसी प्रकार का स्वार्थ, पक्षपात या संकीर्णता न हो, वह अलौकिक अभयदान कहलाता है । जिस अभयदान का दायरा किसी अमुक जाति-विशेष; प्रान्त-विशेष यां राष्ट्र-विशेष के व्यक्तियों तक सीमित कर दिया जाता है अथवा जिसकी सीमा अमुक जाति, प्रान्त या राष्ट्र में आबद्ध हो, वह लौकिक अभयदान है। चूंकि लौकिक अभयदान अमुक सीमा में ही आबद्ध होता है, इसलिए उसमें कुछ न कुछ राग, आसक्ति, पक्षपात या आकांक्षा का अंश रहता ही है। ____ अलौकिक अभयदान में ऐसी बात नहीं होती । वह असीम भावना को लेकर दिया जाता है । उस अलौकिक अभयदान का द्वार किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, प्रान्त या राष्ट्र में ही बन्द न होकर सारे संसार के प्राणियों के लिए, समस्त मानवों के लिए खुला रहता है। यह बात दूसरी है कि वह समग्र विश्व के, समस्त प्राणियों तक अपने एक शरीर से पहुँच न पाता हो, परन्तु वह अपने सामने आये हुए प्रसंगों पर इस प्रकार की सीमा या संकीर्णता नहीं लाता । उसके मन में सारा विश्व होता है, उसकी दृष्टि में प्रत्यक्ष प्रसंग होता है और उसके व्यवहार में सामने जो अवसर आ जाता है, वही अभयदान की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार दान के चारों भेदों पर विवेचन अलौकिक और लौकिक दोनों दृष्टियों से किया गया है।
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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