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दान के भेद-प्रभेद
राजा संयती अपनी मंडली को लेकर वन में निर्दोष वन्य पशुओं का शिकार करने गया । उसने एक हिरन को निर्दयतापूर्वक खींचकर तीर मारा । हिरन घायल होकर गिर पड़ा। अभी उस पर मौत का खतरा सवार था । अतः वह वहाँ से भयभीत होकर अपने प्राण बचाने के लिए भागा और ध्यानस्थ गर्दभिल्ल मुनि के पास जाकर बैठ गया । मुनियों की गोद तो सबको शरण देने और निर्भर बनाने वाली होती है, यह वन्य पशु भी समझते थे ।
संयमी राजा ने दूर से ही जब अपने शिकारमृग को एक शान्त निर्भीक मुनि के पास बैठे देखा तो वह जरा सहम गया । तेजस्वी और प्रभावशाली व्यक्ति के सामने हिंसक, क्रूर और पापी व्यक्ति भी लज्जावश झुक जाता है और अपने दुष्कृत्य को उस समय तो बन्द कर देता है । संयती राजा भी शिकार बन्द करके अपने साथियों सहित गर्दभिल्ल मुनि के पास पहुँचा, जहाँ हिरन बैठा था। राजा मन में भयभीत हो रहा था कि शायद यह मृग मुनि का होगा। मैंने मुनि के इस मृग को सताया और मारने का सोचा, इसलिए ये कहीं कोई श्राप न दे बैठें। वैसे तो समभावी मुनि के लिए सभी प्राणी अपने ही होते हैं । उनका वात्सल्यभाव सब पर होता है । वे निरपराध प्राणी को सताने वाले के प्रति भी वात्सल्य बरसाकर उसकी बुरी या हिंसक वृत्ति को छुड़ा देते हैं ।
संयती राजा हाथ जोड़कर मुनि से अभय और क्षमा की याचना करने लगा। मुनि ध्यान खोलते ही सारी परिस्थिति समझ गए। उन्होंने संयती राजा को समझाते हुए कहा
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"अभओ पत्थिवा तुज्झ, अभयदाया भवाहि य।"
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- हे राजन् ! तुम्हें मेरी ओर से अभय है (किसी प्रकार का भय नहीं है) परन्तु तुम (आज से) इन निर्दोष प्राणियों के अभयदाता बनो । ये बचारे घास-पात खाकर, मुँह में तिनका दबाकर तुम्हारी शरण में आते हैं तो तुम्हें उन्हें अभय बनाना चाहिए ।
बस, उन गर्दभिल्ल मुनि का संयती राजा पर इतना जबर्दस्त प्रभाव पड़ा कि वह महामुनि के चरणों में दीक्षित होकर सदा के लिए सब प्राणियों के लिए पूर्ण अभयदाता बन गया ।
इसलिए पूर्ण अभयदाता तो प्रायः साधु-साध्वी या सन्यासी, भक्त या