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दान के भेद-प्रभेद
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जाता है, वह अभयदान कहलाता है। उससे रहित पूर्वोक्त तीन प्रकार का दान व्यर्थ होता है | चूँकि आहार, औषध और शास्त्र के दान की विधि से क्रमश: क्षुधा, रोग और अज्ञानता का भय नष्ट होता है । इसलिए अभयदान ही एकमात्र श्रेष्ठ है ।
अभयदान का लक्षण
अभयदान का सरल अर्थ होता है सब प्रकार के भयों से मुक्त करना। जैसा कि गच्छाचार पइन्ना में उद्धृत एक गाथा में बताया है -
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स्वभाव से ही सुख के अभिलाषी एवं दुःखों से भयभीत प्राणियों को जो अभय दिया जाता है, वह अभयदान कहलाता है ।
इस लक्षण के अनुसार अभयदान के लिए सर्वप्रथम सात भयों से प्राणी को मुक्त करना आवश्यक है ।
जैनशास्त्र में वे सात भय स्थान (कारण) इस प्रकार बताये हैं. ( १ ) इहलोकभय : इस लोक में अपनी ही जाति के प्राणी से डरना; अर्थात् मनुष्य का मनुष्य से, नारकी का नारकी से, देव का देव से और तिर्यंच का तिर्यंच से डरना, आशंकित और त्रस्त रहना इहलोकभय है ।
( २ ) परलोकभय : दूसरी जाति वाले से डरना; यानी मनुष्य का देव या तिर्यंच से, तिर्यंच का मनुष्य या देव से, देव का तिर्यंच या मनुष्य से भयभीत होना परलोकभय है । '
(३) आदान (अत्राण ) भय : धन, शरीर आदि की सुरक्षा को अपहरण का या चोर का खतरा जानकर डरना ।
( ४ ) अकस्मातभय : बिना किसी बाह्य कारण के अकस्मात् (दुर्घटना) की शंका से डरना । वेदनाभय भी इसका नाम है। जिसका अर्थ है - किसी
१. सर्वेषामभयं प्रबुद्धकरुणैर्यद् दीयते प्राणिनाम् ।
दानं स्यादभयादि, तेन रहितं दानत्रयं निष्फलम् ॥ आहारोषधशास्त्रदानविधिभिः क्षुद्रोगजाड्याद् भयं । यत्तत्पात्रजने विनश्यति ततों दानं तदेकं परम् ॥ २. यः स्वभावात्सुखैषिभ्यो भूतेभ्योदीयते सदा । अभयं दुःखभीतेभ्यो ऽभयदानं तदुच्यते ॥
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पद्मनन्दी पंचविंशतिका
गच्छ. २ अधिकार