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दान : अमृतमयी परंपरा धर्मरत्न ग्रन्थ में अभयदान का महत्त्व बताते हुए कहा है -
- अन्य वस्तुओं का दिया हुआ दान, की हुई तपस्या, तीर्थ-सेवा, शास्त्र-श्रवण, ये सब अभयदान की सोलहवीं कला को प्राप्त नहीं कर सकते । एक ओर सारे यज्ञ हों और सारी श्रेष्ठ दक्षिणा हो तथा दूसरी ओर किसी भयभीत प्राणी के प्राणों की रक्षा हो, तो भी वे इसकी बराबरी नहीं कर सकते । सभी वेद, सभी यज्ञ और समस्त तीर्थाभिषेक जो कार्य नहीं कर सकते, वह कार्य प्राणियों की दया कर सकती है। भयभीत प्राणियों को जो अभयदान दिया जाता है, उनसे बढ़कर अन्य कोई इस भूमण्डल में नहीं है।'
निष्कर्ष यह है कि इन सब पदार्थों की अपेक्षा संसार में प्राणी को अभयदान देना अधिक महत्त्वपूर्ण है।
इसीलिए आचार्य बट्टकेर ने मूलाचार में अभयदान को सब दानों में उत्तम बताया है -
मरणभय से भयभीत समस्त जीवों को जो अभयदान दिया जाता है, वही सब दानों में उत्तम है और समस्त आचरणों में वही दान मूल आचरण है।
यद्यपि आहारदान, औषधदान और ज्ञानदान का अपने-अपने स्थान पर महत्त्व है, परन्तु ये तीनों दान हों और अभयदान न हो तो ये तीनों दान बेकार हैं । इसी बात को पद्मनन्दी ने पंचविंशतिका में स्पष्ट बताया है -
- करुणाशील पुरुषों के द्वारा जो सब प्राणियों को अभयदान दिया
१. दत्तमिष्टं तपस्तप्तं तीर्थसेवा तथा श्रुतम् ।
सर्वाण्यभयदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥५४॥ एकतः क्रतवः सर्वे, समग्रवरदक्षिणाः । एकतो भयभीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥५५॥ सर्वेवेदा न तत्कुर्युः सर्वे यज्ञा यथोदिताः । सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत्कुर्यात् प्राणिनां दया ॥५६।। नहि भूयस्तमो धर्मस्तस्मादन्योऽस्ति भूतले ।
प्राणिनां भयभीतानामभयं यत्प्रदीयते ॥५७।। - धर्मरत्न २. मरणभीरुआणं अभयं जो देदि सव्वजीवाणं ।
दाणाणवि तं दाण, पुण जोगेसु मूलजोग्गं पि ॥ ९३९ - मूलाचार