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दान : अमृतमयी परंपरा
पीड़ा से डरना। (५) आजीविकाभय : अपनी आजीविका छूट जाने से डरना। (६) अपयशभय : अपनी अपकीर्ति (बदनामी) हो जाने की शंका से डरना। (७) मरणभय : मृत्यु का या किसी के द्वारा पिटाई या मारपीट की आशंका
से डरना।
वर्तमान में मानव समाज या समस्त प्राणीयों को सात भयों से मुक्त करना कराना अभयदान है। ...
अतः अभयदान की सीधी-सादी व्याख्या है - "सब प्रकार के संकटों से प्राणी को मुक्त करना, खतरों के, संकटों एवं विपदाओं के निवारण में सहायक बनना, आश्वासन देना, प्राणदान या जीवनदान देकर प्राण जाने के खतरे से बचना, सुरक्षा के लिए शरण में आये हुए प्राणी की रक्षा करना, जिससे प्राणी को खतरा पैदा हो, उस कुप्रथा को बन्द करने-कराने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करना अभय दान है। वसुनन्दी श्रावकाचार में अभयदान का लक्षण इस प्रकार बताया गया है
"जं कीरइ परिक्खा णिच्चं मरणभय भीरुजीवाणं ।
तं जाण अभयदाणं सिहामणि सव्वदाणाणं ॥" .
- मरण से भयभीत जीवों का जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, उसे सब दानों का शिखामणि रूप अभयदान समझना चाहिए।
उपर्युक्त लक्षण में मरण के भय को मुख्यता दी गई है, किन्तु अभयदान का दायरा बहुत ही विस्तृत है। वैसे मरणभय सब भयों में मुख्य है, इसलिए इस भय से मुक्त करने को अभयदान का चिन्ह समझ लेना चाहिए। . किन्तु 'गच्छाचारपइन्ना' में उक्त अभयदान के लक्षणानुसार निम्नलिखित बातें अभयदान के अन्तर्गत आ जाती हैं - (१) सब प्रकार के भयों और दुःखों से आक्रन्त प्राणियों को भय से मुक्त
करना। (२) आफत के समय निर्भयता का संचार करना । (३) मृत्यु से भयभीत प्राणी की रक्षा करना ।