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________________ दान के भेद-प्रभेद २१३ अभयदान की महिमा दान का चौथा भेद अभयदान है । संसार का इतिहास बताता है कि प्रत्येग युग में निर्बलों पर सबलों द्वारा अत्याचार होते रहे हैं, उनके प्राणों को अपने अहंकार पोषण या अपने मनोरंजन अथवा ईर्ष्या-द्वेषवश लूटा गया है, जिन्दगी के साथ खिलावड़ की गई है । अपनी किसी कुप्रथा के पालन या स्वार्थ-साधना या निहित स्वार्थ को पूर्ण करने के लिए निर्दोष निर्बल प्राणियों का वध किया गया है, अपने से विरोधी विचारधारा वाले व्यक्तियों को अधिकार के बल पर कुचला गया है ऐसी दशा में समस्त मनुष्यों को ही नहीं, सारे प्राणियों को भी अभयदान की जरूरत है। हिरोशिमा और नागाशाकी पर गिराये हुए अणु • बमों ने जो तबाही मचाई है, उससे तो छोटे-बड़े सभी देशों को अभयदान की आवश्यकता महसूस होने लगी है। क्योंकि सभी राष्ट्रों को भय है कि अणु-युद्ध छिड़ जाने पर लाखों मनुष्य एवं पशु जान से मारे जायेंगे और जो बाकी बचेंगे, वे भी अंगविकल और मरणासन्न होकर जीयेंगे । आहारदान, औषधदान और ज्ञानदान की अपेक्षा अभयदान का मूल्य अधिक है। आहारदान (अन्नदान) से मनुष्य की क्षणिक तप्ति हो सकती है, औषधदान से एक बार रोग मिट सकता है और ज्ञानदान से व्यक्ति का जीवन अच्छा बन सकता है, किन्तु ये सब दे देने पर भी मनुष्य के सामने प्राणों का संकट आ पड़ा हो तो उस समय वह इन्हें छोड़कर प्राणों को चाहेगा, वह चाहेगा कि ये चाहे न मिले, परन्तु प्राण मिल जायें, वे बच जायें, इसीलिए महाभारत में कहा है - - भूमिदान, स्वर्णदान, गोदान या अन्नदान आदि उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, जितना अभयदान को समस्त दानों में महत्त्वपूर्ण दान कहा जाता है। १. न भूप्रदानं, न सुवर्णदानं, न गोप्रदानं, न तथान्नदानम् । यथा वदन्तीह महाप्रदानं सर्वेषु दानेष्वभयप्रदानम् ॥ – महाभारत
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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