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________________ २१४ दान : अमृतमयी परंपरा सचमुच इस दुनियाँ में जमीन, सेना, अन्न और गायों का दान देनेवाले तो आसानी से मिल सकते हैं, लेकिन भयभीत प्राणियों की प्राणरक्षा करके उन्हें अभयदान देने वाले व्यक्ति विरले ही मिलते हैं । दूसरे दोनों से मनुष्य या प्राणी अस्थायी संतोष पा जाता है या कुछ देर के लिए उसका लाभ उठा सकता है, परन्तु अभयदान तो जिन्दगी का दान है। बड़े-बड़े दानों का फल समय बीतने पर क्षीण हो जाता है, लेकिन भयभीत प्राणियों को अभयदान का फल कभी क्षीण नहीं होता । वह तो सारी जिन्दगी भर चलता है और सब दानों को मनुष्य या प्राणी भूल जाते हैं, लेकिन अभयदान को नहीं भूलते । अन्न, भूमि, स्वर्ण, गाय या विद्या आदि दान तो सिर्फ मनुष्य के ही काम आते हैं, मगर अभयदान तो मनुष्य ही नहीं, संसार के सभी प्राणियों के काम आता है। हीरा, मोती, भूमि या सोना अगर सिंह, सर्प आदि प्राणी को दे तो उसके वे किस काम के ? ये सब चीजें, यहाँ तक कि अन्न भी और कीमती दवाइयाँ भी उसके लिए बेकार हैं । सिंह आदि क्रूर प्राणियों के प्राण संकट में हों, उन्हें प्राणों का भय हो, उस समय प्राणरक्षा करके अभयदान को वे समझते हैं, वे उसे भूलते नहीं हैं और अपने उपकारी के वश में होकर प्रत्युपकार करने को तैयार हो जाते हैं । इसीलिए सूत्रकृतांगसूत्र में कहा है - 1 "दाणाण सेट्टं अभयप्पयाणं ।" सब दानों में अभयदान श्रेष्ठ है । महाभारत का एक सुनहरा पृष्ठ है । एक बार द्वारिका नगरी के एक मुहल्ले में एक साँप निकला । साँप को देखते ही लोग इकट्ठे हो गये । कुछ लोग दूर खड़े-खड़े साँप पर ढेला मारने लगे । साँप बहुत ही भयभीत हो रहा था । इतने में एक विश्वबन्धु एवं अभयदानी वीर वहाँ आ गया। उसने जब लोगों की १. हेमधेनु धरादीनां दातारः सुलभा भुवि । 1 दुर्लभः पुरुषो लोके यः प्राणिष्वभयप्रदः ॥ - मार्कण्डेयपुराण २. महतामपि दानानां कालेन क्षीयते फलम् । भीताभय-प्रदानस्य क्षय एव न विद्यते ॥ - - • धर्मरत्न ५३
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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