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दान : अमृतमयी परंपरा
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बचे, उसे विद्या के निमित्त दान कर दें। उस समय २८ करोड़ हिन्दू थे । प्रति व्यक्ति प्रतिमास ८ आने दे तो १४ करोड रुपये मासिक आय हो सकती थी । इतनी अर्थराशि से तो कितने ही विश्वविद्यालय चल सकते थे ।
इसलिए जो निर्धन, असहाय, अनाथ एवं पराश्रित बालकों को विद्यादान देता है दिलाता है, वह वास्तव में उस बालक को भविष्य की रोटी-रोजी का साधन देता है । इतना ही नहीं, प्रकारान्तर से वह उस बालक के जीवन में सुसंस्कारों तथा चरित्र-निर्माण का दान करता है I
भगवद्गीता में कहा है.
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"ज्ञानवान् मां प्रपद्यते।" जो ज्ञानवान है; वही प्रभु को प्राप्त करता है । ज्ञान के लिए विद्यादान उत्तम उपाय है ।
सचमुच, विद्यादान पाये हुए व्यक्ति के द्वारा विद्यादान में व्यय करना एक तरह से प्रतिदान है । ऋणमुक्ति का प्रकार है ।
स्वीडन के इंजीनियर डॉ. एल्फ्रेड नोवेल की मृत्यु के पश्चात् अब भी उनके द्वारा छोड़ी हुई समर्पित सम्पत्ति से प्रति वर्ष विश्व के महान् कलाकारों, लेखकों, और आविष्कारकों को इनाम मिलता रहता है और मिलता रहेगा। यह भी विद्यादान का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसी प्रकार अमेरिका के विश्वविख्यात तेल व्यवसायी जोन डी. रॉकफेलर नामक सर्वश्रेष्ठ धनी ने २ अरब रुपयों से अधिक शिक्षा प्रचार, चिकित्सा आदि में दान दिये। काफी लोग गुप्तदान के रूप में भी दान करते हैं
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इस प्रकार देश-विदेश में हजारों व्यक्ति ऐसे है, जो विद्या जैसे पवित्र कार्य में लाखों रुपये दान में देते हैं । दानवीर एण्ड्रयूज कार्नगी स्वयं निर्धन अवस्था में कई पुस्तकालयों से पुस्तक ला- लाकर पढ़ते थे । किन्तु जब वे पढ़लिखकर विद्वान हुए और अपने पुरुषार्थ के बल पर करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति के मालिक बने तो उन्होंने अपनी सम्पत्ति का अधिकांश भाग जगह-जगह पुस्तकालयों के निर्माण में विद्यादान के रूप में व्यय किया । यह भी विद्यादान का एक महत्त्वपूर्ण अंग है ।
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सचमुच लौकिक ज्ञानदान का भी अद्भुत महत्त्व है । लौकिक ज्ञानदान भी परम्परा से मुक्ति का कारण बन जाता है ।