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________________ दान : अमृतमयी परंपरा अवसर पर ही अपेक्षित होते हैं, लेकिन ज्ञानदान तो प्रत्येक प्रवृत्ति, प्रत्येक अवसर और हर क्रिया में उपयोगी, अनिवार्य एवं सुखवर्द्धक होने से प्रतिक्षण अपेक्षित होता है | अलौकिक ज्ञानदान तो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ही है, लौकिक, ज्ञानदान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । २०० अलौकिक ज्ञानदानदाता प्रायः साधु-साध्वी, श्रमण - श्रमणी होते हैं । उनके निमित्त से अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध मिलता है । क्योंकि वे ही अध्यात्म ज्ञान प्राप्त करते हैं और दूसरों को प्रतिबोध देते हैं । सामान्य गृहस्थ इतना उच्च कोटि का ज्ञानवान् विरला ही मिलता है । हत्यारे एवं पापी बने हुए अर्जुनमालि की जब भगवान महावीर ने आत्मज्ञान दिया तो उसकी सोई हुई आत्मा जाग उठी और वह मुनि बनकर तप त्याग और संयम की साधना में अपने आपको झौंक देता है। कितनी पीड़ा होती है, जब वह राजगृह नगर में आहार के लिए जाता है और उसे सन्मानपूर्वक आहार के बदले गालियाँ, मुक्के, लाठियों एवं ढेलों का प्रहार मिलता है । आहार- पानी भी पर्याप्त नहीं मिलता । परन्तु भगवान महावीर के द्वारा दिये हुए आत्मा और शरीर के भेदविज्ञान के बलपर अर्जुन मुनि समभाव में स्थिर रहकर अपने समस्त कर्मों को केवल छह महिनों में काट देता है और केवल ज्ञान प्राप्त कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाता है। इसी प्रकार चिलातीपुत्र को, दृढ़प्रहारी को एवं अनेक हत्यारों तथा पापात्माओं को आत्मज्ञानी मुनिवरों से ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया, साध्य को प्राप्त कर लिया । महात्मा बुद्ध ने अंगुलिमाल डाकू को ज्ञानदान देकर उसका जीवन बदल दिया, अंगुलिमाल डाकू से भिक्षु बन गया । इसी प्रकार कई वेश्याएँ भी स्थूलभद्र जैसे मुनिवरों से ज्ञान प्राप्त करके अपनाआत्म-कल्याण कर सकी । ईसामसीह के द्वारा भी जेकसन जैसे अनेक पतित व्यक्ति बोध पाकर सुधर गए । जैनदर्शन के उद्भट विद्वान एवं समदर्शी आचार्य हरिभद्र चितौड़ के राजपुरोहित थे । विद्वत्ता का अत्यन्त अभिमान था । उनकी यह प्रतिज्ञा थी कि "जो मुझे ऐसे श्लोक का अर्थ बताए जिसका अर्थ मुझे न आता हो, मैं उसका शिष्य बन जाऊँगा ।" एक बार वे जैन साध्वियों के उपाश्रय के पास से गुजर रहे थे कि अचानक उनके कानों में एक प्राकृत गाथा पड़ी, बहुत प्रयत्न करने पर भी
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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