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दान के भेद-प्रभेद
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वे इसका अर्थ समझ न पाए । अतः वे उपाश्रय में पहुंचे और गुरुणी श्री याकिनी महत्तरा के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए, बोले - "माताजी ! अभी अभी आप जिस गाथा का उच्चारण कर रही थीं, वह गाथा और उसका अर्थ मेरी समझ में नहीं आया, सुनाने की कृपा करिए।" साध्वी जी ने गाथा का उच्चारण किया और उसका अर्थ बताया। अर्थ सुनकर हरिभद्रजी का गर्व उतर गया । वे तुरन्त ही साध्वीजी को नमस्कार करके बोले - "माताजी ! आज से आप मेरी गुरुणी हैं, मुझे अपना शिष्य बना लीजिए।" साध्वीजी बोली - "आपको शिष्य तो हमारे गुरु महाराज ही बना सकते हैं। उनके पास मैं आपको ले चलती हूँ।" बस, हरिभद्र गुरुजी के पास दीक्षित हो गए । जैन दर्शन के अद्वितीय विद्वान् आचार्य हुए । दशवैकालिक आदि पर वृत्ति लिखी । किन्तु ज्ञानदानदात्री अपनी उपकारिणी गुरुणी को भूले नहीं । हर ग्रन्थ की समाप्ति पर अपने आपका परिचय धर्ममाता 'याकिनी महत्तरासूनु' (याकिनी महत्तरा का धर्मपुत्र) से दिया । . इस प्रकार के ज्ञानदान के अनेक उदाहरण संसार के इतिहास में मिलते हैं, जिनके ज्ञानदान से ही सृष्टि का कायापलट हुआ है, अनेकों आत्माओं ने प्रतिबोध पाया है और संसार-सागर से तर गए हैं।
यहाँ कुछ उदाहरण हम प्रस्तुत करेंगे - - जैन जगत् के ज्योतिर्धर आचार्यश्री सिद्धसेन दिवाकर को अपनी विद्वत्ता का गर्व था। उनके पांडित्य पर मुग्ध होकर उज्जैन के राजा ने उनके सम्मान के लिए पालकी और उसके उठाने वाले कहार अपनी ओर से दिये । सिद्धसेन आचार्य ने सोचा - "क्या बुरा है, राजा सहज भाव से देता है तो ! उन्होंने साधु जीवन की मर्यादा का कोई विचार नहीं किया।" अब वे पालकी में बैठकर ही भ्रमण करने लगे। ऐसे समर्थ आचार्य को कौन रोकता ? उनके गुरुदेव आचार्य श्री वृद्धवादी को जब यह पता लगा कि सिद्धसेन पालकी मैं बैठकर भ्रमण करता है तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ । कैसे समझाया जाय, विद्वान शिष्य कों? एक दिन पालकी उठानेवाला एक कहार अनुपस्थित था, यह देखकर वृद्धवादी सामान्य मजदूर के वेष में उन कहारों से जा मिले और कहा – “आज मुझे भी पालकी १. चक्की दुग्गं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की ।
केसव चक्की केसव दुचक्की केसी अ चक्की अ॥