________________
दान : अमृतमयी परंपरा
इस संसार में ज्ञान के समान कोई भी पवित्र वस्तु नहीं है। ज्ञान सर्वोत्कृष्ट पदार्थ है। सारे के सारे कर्म (क्रियाएँ) ज्ञान' में परिसमाप्त होते हैं। हे अर्जुन ! ज्ञानरूपी अग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर डालती है । परमात्मा को ज्ञानवान ही प्राप्त कर सकता है
1
१९८
वास्तव में आत्मा स्वयं ज्ञानमय है । आचारांगसूत्र में ज्ञान और आत्मा को एकरूप बताया है ।' आत्मा पर अज्ञान का जब आवरण आ जाता है, तो उसका ज्ञान उतने अंशों में ढक जाता है। उसी आच्छादित ज्ञान को प्रगट करने के लिए ज्ञानदान की आवश्यकता होती है ।
I
अज्ञान और मोह का पर्दा जब व्यक्ति के शुद्ध ज्ञान पर छा जाता है तो उसे वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान और भान न होने के कारण दुःखी होता है, चिन्तित और व्यथित होता है, अपनी मानी हुई इष्ट वस्तु के वियोग और अनिष्ट के संयोग में दुःखी होता है, आर्त्तध्यान - रौद्रध्यान करता हैं, निमित्तों को कोसता है अथवा इष्ट वस्तु का संयोग और अनिष्ट का वियोग होने पर हर्षित होता है, फूला नहीं समाता, निमित्तों की प्रशंसा करता है। मोह और अज्ञान के कारण ही व्यक्ति नाना प्रकार के पाप कर्म करता है, अनेक दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और बुराइयों को अपना लेता है । इन सबसे दूर रहने के लिए ज्ञानदान की अति आवश्यकता होती है। ज्ञान प्राप्त होने पर अथवा आत्मा में ज्ञान का प्रकाश होने पर अज्ञान एवं मोह के कारण जो विविध प्रकार के भय, खतरे और आशंकाएँ दिमाग में जमे हुए थे, वे सब सूर्य के प्रकाश में रात्रि के अन्धकार दूर होने की तरह दूर हो जाते हैं । इसलिए एक विद्वान ने कहा है - "Knowledge is Light.” ज्ञान प्रकाश है। आत्मा में जब ज्ञान का प्रकाश हो जाता है तो अज्ञानवश जो मन में वैरविरोध, द्वेष - घृणा, मोह-ममता आदि दुर्गुण घर किये हुए थे, वे सब दूर हो जाते हैं और उनके बदले मैत्री- - समता - सरलता, क्षमा, दया आदि सद्गुण स्थान जमा लेते हैं । इसलिए सुकरात कहता था “ Knowledge is virtue.” ज्ञान एक सद्गुण है। ज्ञान का सद्गुण जिसमें होता है, वह शास्त्रस्वाध्याय, प्रवचन - श्रवण, उपदेश-श्रवण, महापुरुषों के वचनों पर चिन्तन-मनन के द्वारा ज्ञानरस में तन्मय होकर खाने-पीने तक को भूल जाता है । वह एक वैज्ञानिक की तरह ज्ञान की १. जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। - आचारांगसूत्र १/५/५/१०४