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दान : अमृतमयी परंपरा
दिनों तक आना पड़े।" रेवती श्राविका ने मुनियों के कथनानुसार उस औषध के दो टुकड़े दिये । उनके सेवन करते ही प्रभु महावीर के शरीर में शान्ति होने लगी। कुछ ही दिनों में तो वे एकदम स्वस्थ हो गए।
रेवती श्राविका द्वारा दिये गये इस औषधदान का सुफल उसे अवश्य मिला । तात्कालिक फल तो यह मिला कि वह सारे जैन जगत् में प्रसिद्ध हो गई। भगवती सूत्र के पन्नों पर उसका नाम अंकित हो गया । भगवान महावीर को सुखसाता पहुँचाकर उसने उनके द्वारा जगत् के जीवों को महालाभ दिलाया।
यह तो हुआ अलौकिक औषधदान का सुफल एवं महत्त्व ! लौकिक औषधदान का भी महत्त्व कम नहीं है। दीन-हीन किसी रोग, व्याधि या पीडा से पीडित व्यक्ति किसी वैद्य या चिकित्सक के इलाज से स्वस्थ और रोगमुक्त हो जाते हैं तो हजार-हजार मूक आशिष बरसाते हैं। ऐसा औषधदान महान् पूण्य का उपार्जन तो करता ही है, उत्कृष्ट भावरसायन आ जाने पर निर्जरा (कर्मक्षय) भी कर लेता है। औषधदान करने वाले व्यक्ति के मन में करुणा का झरना बहता रहता है। इस प्रकार के औषधदान को सिर्फ औषधदान ही नहीं, एक प्रकार से जीवनदान समझना चाहिए।
बहुत से आचार्य, जिन्होंने दान के तीन भेद किये हैं, वे औषधदान को आहारदान में ही गतार्थ कर लेते हैं। उनकी दृष्टि से औषधदान एक प्रकार का आहारदान ही है अथवा कई आचार्यों ने औषधदान को. अभयदान में समाविष्ट कर लिया है। .