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________________ दान के भेद-प्रभेद कथा बताती है कि वैद्य का जीव पुण्डरीकिणी नगरी में वज्रनाभ चक्रवर्ती बना और शेष चारों मित्र बने वज्रनाभि के चारों भाई तथा पंसारी से का जीव वज्रनाभ, चक्रवर्ती का सारथी सुयशा बना। एक बार वज्रसेन तीर्थंकर पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे । छहों ने उनका उपदेश सुना और विरक्त होकर उनसे मुनिदीक्षा ले ली । वज्रनाभ ने बीस स्थानक की सम्यक् आराधना के फलस्वरूप तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया । बाहुमुनि ने ५०० साधुओं को प्रतिदिन आहार-पानी लाकर देने की प्रतिज्ञा की, सुबाहु मुनि उन ५०० साधुओं की सेवा-शुश्रूषा करने लगा.। पीठ-महापीठ मुनि अपने ज्ञान-ध्यान और तप में लीन रहते थे । फलतः वज्रनाभ मुनि तीर्थंकर ऋषभदेव बने, बाहु-सुबाहु उनके पुत्र भरत-बाहुबली बने और पीठ-महापीठ उनकी पुत्री के रूप में ब्राह्मी और सुन्दरी बनी। इस प्रकार अलौकिक औषधदान का उत्तम फल प्राप्त हुआ । औषध दान भी तभी दिया जाता है, जब रुग्ण व्यक्ति के प्रति दाता के मन में महाकरुणा हो उत्तम पात्र हों तो, उनके प्रति श्रद्धाभाव हो, उन्हें साता पहुंचाने की भावना हो। श्रमण भगवान महावीर पर एक बार गोशालक (क्षपणक) ने द्वेषवश तेजोलेश्या फेंकी, परन्तु उस तेजोलेश्या का उनके आयुष्यबल पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु उनके शरीर पर अवश्य ही प्रभाव पड़ा । उन्हें रक्तातिसार हो गया। यह देखकर उनके शिष्य बहुत चिन्तित हो उठे और उन्हें औषध सेवन का अनुरोध करने लगे । भगवान महावीर ने अपने शिष्यों के मनस्तोष के लिए कहा- "तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो तुम रेवती नाम की सद्गृहस्थ श्राविका के यहाँ जाओ और उसके यहाँ जो कुष्माण्डपाक बनाया हुआ है, उसमें से दो फाके ले आओ ! वह औषध मेरे इस रोग के निवारण के लिए बहुत ही अनुकूल होगी।' मुनि बहुत ही श्रद्धापूर्वक रेवती श्राविका के यहाँ पहुँचे । रेवती ने मुनियों को अपने यहाँ आते देख बहुत ही श्रद्धापूर्वक स्वागत किया और उनसे भगवान महावीर की अस्वस्थता के समाचार जानकर अपने यहाँ जो अनेक मूल्यवान औषधिया डालकर कुष्माण्डपाक बनाया हुआ था, उसमें से बहुत-सा देने लगी, परन्तु मुनियों ने कहा - "हमें सिर्फ इसके दो ही टुकडे चाहिए, अधिक नहीं, क्योंकि शायद प्रभु के लिए फिर इसी दवा को लेने के लिए कई
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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