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________________ १९४ दान : अमृतमयी परंपरा उसी नगर के एक पंसारी के यहाँ ये दोनों चीजें मिलती थी । अतः चारों ही मित्र उस पंसारी के यहाँ पहुँचे और रत्नकम्बल और बावनाचन्दन के बारे में पूछा तथा दोनों की जो भी कीमत हो, हमसे ले लीजिए। इन युवकों के मुँह से इतनी बहुमूल्य चीजों के खरीदने की बात सुनकर पंसारी को कुछ शक हुआ । उसने पूछा - "क्यों भैया ! आपको ये दोनों चीजें किसलिए चाहिए ?" चारों ने उत्तर दिया - "एक मुनिराज के शरीर में भयंकर रोग है, उसके निवारण करने और मुनि को स्वस्थ करने के लिए हमें ये दोनों चीजें चाहिए । उनके शरीर में कीड़े पड़ गए हैं, जिससे उन्हें भयंकर असाता उत्पन्न हो गई है ।" - पंसारी ने सोचा – “मैं इतना बडा धनाढ्य हूँ । मेरा व्यापार काफी अच्छा चलता है। फिर भी मैं एक मुनिराज की चिकित्सा के लिए कीमत लेकर इन चीजों को दूँ, यह मेरे जैसे सम्पन्न व्यक्ति के लिए उचित नहीं है । जब ये चारों लड़के इस छोटी-सी उम्र में मुनिराज की सेवा करने की इतनी भावना रखते हैं और मुझसे ये बहुमूल्य वस्तुएँ खरीदना चाहते हैं तो मैं ही औषधदान कें रूप में इस सेवा का लाभ क्यों न लूँ । इसलिए अपने दिल की बात युवकों के सामने प्रगट की कि “मेरी इच्छा है कि यह रत्नकम्बल और बावना - चन्दन मेरी ओर से काम में लाया जाए। सभी ने उनकी बात सहर्ष स्वीकार की । पंसारी और चारों युवक वैद्य के पास पहुँचे । वैद्य ने अपने औषधालय से लक्षपाक तेल लिया और इस प्रकार ये छहों व्यक्ति रुग्ण मुनि के पास पहुँचे । 1 वैद्य ने मुनि के शरीर पर लक्षपाक तेल लगाया और वह रत्नकम्बल उन्हें ओढ़ा दिया, जिससे थोडी ही देर में तेल की गर्मी पाकर कीड़े बाहर निकलने लगे और पास ही रत्नकम्बल (जों ठंडी थी) में आकर जमा होने लगे । इस प्रकार तीन बार लक्षपाक तैल लगाया और रत्नकम्बल ओढ़ाया गया। इससे सारे के सारे कीड़े उस कम्बल में एकत्रित हो गए । उसके बाद बावनाचन्दन घिसकर उसका लेप मुनि के शरीर पर कर दिया । फलस्वरूप मुनि का शरीर पूर्णतः स्वस्थ हो गया । अन्त में छहों व्यक्तियों ने मुनिवर से क्षमायाचना की "भंते ! 'आपके ज्ञानध्यान में हमने विघ्न डाला, इसके लिए क्षमा चाहते हैं ।" इसके बाद पंसारी वैद्य और ये चारों युवक परस्पर मित्र बन गए। आगे
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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