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दान के भेद-प्रभेद
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आहारदान का स्वरूप और महत्त्व
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जैन धर्म में दान को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है और साधु को दान लेने का अधिकारी बतलाकर वहाँ दान देने का महत्त्व बहुत ही स्पष्ट रूप से बताया गया है । परन्तु गृहस्थ के जीवन में शुद्ध (निश्चय) धर्म को बहुत कम अवकाश होने से गृहस्थ धर्म में दान की प्रधानता है । दान को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - अलौकिक और लौकिक । अलौकिक दान चार प्रकार का है - आहारदान, औषधदान, ज्ञान (शास्त्र) दान और अभयदान | ये ही चार प्रकार लौकिक दान के हैं । अन्तर इतना ही है, आहारादि चार प्रकार का अलौकिक दान प्रायः साधुओं को दिया जाता है, तो वह उत्कृष्ट फलदायक होता है और जब उन्हीं आहारादि का लौकिक दान समान, अनुकम्पनीय, साधर्मी या करुणापात्र गृहस्थ को दिया जाता है, तब वह इतना उच्च फलदायक नहीं होता। परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि अलौकिक पात्र न मिले तो अवसर आने पर लौकिक पात्र को भी न देना । दान तो किसी भी हालत में निष्फल नहीं जाता । इसीलिए कहा है
" मात्रके कीर्तिपुष्टाय, स्नेहपुष्टाय बान्धवे ।
सुपात्रे धर्मपुष्टाय, न दानं क्वापि निष्फलम् ॥”
मात्रक (दीन-दु:खी करुणापात्र) को दान देने से कीर्ति की पुष्टि (वृद्धि) होती है, भाई-बन्धुओं को दान देने से स्नेह की पुष्टि होती है और सुपात्र को दान देने से धर्म की पुष्टि होती है। दान कदापि निष्फल नहीं जाता । लौकिक और अलौकिक दृष्टि से दान के चार भेद :
जैन धर्म के विविध शास्त्रों और धर्मग्रन्थों में दान के कहीं चार प्रकार, कहीं तीन प्रकार भिन्न भिन्न रूप में वर्णित हैं। पहले हम उन सबके नाममात्र का क्रमशः उल्लेख करते हैं,, उसके बाद उन पर पूर्वोक्त दोनों दृष्टियों से विश्लेषण करेंगे ।
वास्तव में दान भावना पर निर्भर है और भावना की विविध तरंगें हैं । इसलिए दान भी विविध प्रकार का हो जाता है । परन्तु
यहाँ
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