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दान : अमृतमयी परंपरा
- अनुकम्पा के योग्य व्यक्ति पर अनुकम्पा करके दान देना चाहिए, जो अनुकम्पनीय नहीं है, किन्तु सुपात्र हैं, उनके प्रति भक्ति करके दान देना समुचित फल देने वाला है। अगर अनुकम्पा के योग्य पात्र को कोई भक्तिपूर्वक दान देता है और जो भक्ति के योग्य हैं, उनके प्रति अनुकम्पा करके दान देता है तो उसका दान अतिचार (दोष) से पूर्ण है।
__ प्रश्न होता है, क्या श्रावक के लिए संयमी के सिवाय और किसी को अनुकम्पा लाकर दान देना निषिद्ध है ? अथवा व्रती के सिवाय और किसी को अनुकम्पापूर्वक दान देने से क्या श्रावक को मिथ्यात्व लग जाता है या उसका . सम्यक्त्व भंग हो जाता है ? इसके समाधान में जैनशास्त्र एक स्वर से कहते हैं कि इस प्रकार से अनुकम्पा के पात्र व्यक्ति को अनुकम्पा लाकर दान देना कहीं वर्जित नहीं है। अगर ऐसा वर्जित होता तो स्वयं तीर्थंकर भगवान एक वर्ष तक लगातार दान देते हैं, वह क्यों देते? वे स्वयं भी उस कार्य को क्यों करते, जिस कार्य के लिए वे दूसरों को मना करते हैं ? क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करता है उसी का अनुसरण उसके अनुगामी करते हैं, यह भगवद्गीता की उक्ति प्रसिद्ध
है।
भगवान महावीर ने एक वर्ष तक लगातार दान दिया और उस दान को लेने वाले कोई असंयती अव्रती भी होंगे । क्या सभी श्रावक या साधु ही उस दान के ग्राहक थे ? ऐसा नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता तो भगवान महावीर दीक्षा लेने के बाद अपने कन्धे पर पड़े हुए देवदूष्य वस्त्र को आधा फाड़कर दीन-हीन ब्राह्मण को भी न देते । परन्तु तीर्थंकरों ने कभी किसी अनुकम्पनीय के लिए (फिर वह चाहे श्रावक या साधु हो या न हो) अनुकम्पा लाकर दान देने का निषेध नहीं किया है । इसी आशय को निम्नलिखित गाथा स्पष्ट प्रकट करती है -
"सव्वेहिं पि जिणेहिं दुज्जयतियराग दोसमोहेहिं । अणुकम्पादाणं सड्ढयाणं न कर्हि विपडिसिद्ध ॥".
१. यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत् तदेवेतरो जनः।
स यत् प्रमाणं कुरुते, लोकस्तदनुवर्तते ॥ - भगवद्गीता