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________________ दान के भेद-प्रभेद १७९ - दुर्जय राग-द्वेष मोह की त्रिपुटी के विजेता समस्त जिनेन्द्र भगवन्तों ने श्रद्धालु श्रावकों के लिए अनुकम्पादान का कहीं निषेध नहीं किया है । इसी कारण जैन शास्त्रों में उल्लेख है कि श्रावकों के घर के द्वार दान देने के लिए खुले रहते थे । 'अवंगुय दुवारे' उनके गृहद्वार सदा अभंग - खुले रहते थे, ऐसा कहा है । अगर श्रावकों के लिए साधु के सिवाय किसी को दान देना वर्जित होता तो वे घर के दरवाजे क्यों खुले रखते ! बल्कि वे भोजन करते समय भी घर के द्वार बन्द करके नहीं बैठते थे । यही बात अभिधान राजेन्द्रकोष में एवं प्रवचनसारोद्धार में स्पष्ट कहीं है। "नेवदारं पिहावइ, भुजमाणो सुसावओ । अणुकम्पा जिणंदेहिं सुड्ढाणं न निवारिआ ॥" - - सुश्रावक भोजन करते समय घर का द्वार कभी बन्द नहीं करता था और न उसे करना ही चाहिए, क्योंकि जिनेन्द्र भगवन्तों ने श्रावकों - श्रमणोंपासकों के लिए अनुकम्पादान कहीं वर्जित नहीं किया । यही कारण है कि भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य श्री केशी श्रमण के सामने जब राजा प्रदेशी के हृदय परिवर्तन हो जाने पर और उनसे व्रत ग्रहण करके विदा होते समय उसके द्वारा अपनी राज्यश्री के चार भाग करके एक भाग को दीन, दुःखी अनाथों को दान देने के लिए रखने का संकल्प किया तो केशी श्रमण ने प्रदेशी राजा से उसी समय निम्नोक्त उद्गार कहा है, जो राजप्रश्नीयसूत्र में अंकित है - - "माणं तुमं पएसी ! पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि । " - • राजन् प्रदेशी ! तुम पहले रमणीय हो जाने के बाद अरमणीय मत हो जाना। अगर श्रावकव्रती के लिए किसी दीन-दुःखी, अपाहिज अन्धे, अभावग्रस्त आदि अनुकम्पनीय को दान देना वर्जित होता तो केशी श्रमण यों क्यों कहते ? उन्होंने ऐसा कहकर तो प्रदेशी राजा के दान के संकल्प पर अपनी मुहर - छाप लगा दी है कोई कह सकता है कि यदि अनुकम्पादान का इतना माहात्म्य है तो फिर पात्र, सुपात्र, विशिष्टपात्र, अपात्र और कुपात्र आदि को दान देने से फल में अन्तर क्यों बताया ? फल में अन्तर बताया है, इससे मालुम होता है, अनुकम्पादान
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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