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दान : अमृतमयी परंपरा
- जैसे मरुभूमि में वर्षा सार्थक है, जो भूखा हो उसे भोजन देना सार्थक है, वैसे ही जो दीन, दुःखी, पीडित या दरिद्र हैं, उन्हें दान देना सार्थक होता है। हे अर्जुन ! दरिद्रों को सहायता देकर उनका पोषण कर । जो समर्थ हैं, सम्पन्न हैं, उन्हें धन न दे। औषध रोगी को ही दी जाती है, जो निरोग है, उसे औषध देने से क्या लाभ है ?
निष्कर्ष यह है कि दान तभी सफल है, जब वह दीन, दुःखी, पीड़ित या अभावग्रस्त को दिया जाता है । वास्तव में सम्यग्दृष्टि भी वही है, जिसका हृदय दीन-दुःखी को देखकर अनुकम्पा से भर आता हो और जिसका हाथ उन्हें दान देकर उनके कष्ट निवारण के लिए तत्पर हो उठता है।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर कलकत्ता के बड़ा बाजार से होकर कहीं जा रहे थे कि अचानक रास्ते में उन्हें एक १४-१५ साल का लड़का मिला । वह फटेहाल था। पैर में जूते नहीं थे। चेहरे पर बहुत उदासी थी, मानो उसे चिन्ताओं ने घेर रखा हो । उसने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के सामने हाथ पसारते हुए दीनता भरे स्वर में कहा - "कृपा करके मुझे एक आना दीजिए, मैं दो दिन से भूखा हूँ।" उसकी दयनीय दशा देखकर ईश्वरचन्द्र के मन में सहानुभूति जागी । उन्होंने अनुकम्पा से प्रेरित होकर उस लड़के से पूछा – “अच्छा, मैं तुम्हें एक आना दूंगा, पर कल क्या करोगे?"
लड़के ने उत्तर दिया - "कल ? कल फिर दूसरे से....।" "और चार आने दूं तो क्या करेगा ?" ईश्वरचन्द्र ने लड़के से पूछा ।
"तो उनमें से एक आने का खाना पेट में डालूँगा, बाकी के तीन आने से सन्तरे लाकर बेचूंगा।" लड़के ने कहा । ईश्वर-"और एक रुपया दूँ तो?"
- "तो फिर व्यवस्थित रूप से फेरी करूँगा।" लड़के ने प्रसन्न होकर कहा।
विद्यासागर ने उसे एक रुपया दिया। - वह लड़का उस रुपये से सौदा लाकर रोजी कमाने लगा । एक दिन वह अपनी दुकान पर बैठा था, तभी उसकी दृष्टि विद्यासागर पर पड़ी । वह उन्हें । दुकान पर बुला लाया और नमस्कार करके कहा – “साहब ! आपने मुझ पर जो