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________________ दान के भेद-प्रभेद १७५ के भेदों से ऊपर उठकर दिया जाए । अनुकम्पादान के घेरे में सभी प्राणी आ जाते हैं, जो संकट, आफत या दुःख में पड़े हों । क्योंकि अनुकम्पादान का अर्थ ही यही है 'किसी प्राणी को संकट, आफत या दुःख में पड़ा देखकर तदनुकूल कम्पन, सहानुभूति या करुणा पैदा होना और उसके दुःख को अपना दुःख समझकर उसके दुःख निवारण के लिए दान देना ।' __कोई भी व्यक्ति चाहे वह अधिक सम्पन्न हो या कम, अपने जीवन में सद्गुणों का विकास करने के लिए उसे अनुकम्पादान को अपनाना आवश्यक है अन्यथा वह व्यक्ति, परिवार, जाति या समाज संस्कारहीन, गुणों से रिक्त एवं पशुमय जीवन से युक्त होगा । किसी भी सम्पन्न व्यक्ति द्वारा सहायता की आशा या अपेक्षा दीन-हीन, दुःखी और पीड़ित आदि को ही तो होती है, किसी साधन-सम्पन्न, सत्ताधारी या धनाढ्य को सम्पन्न व्यक्ति द्वारा सहायता या दान की अपेक्षा, आशा या आवश्यकता नहीं होती, बल्कि सम्पन्न को देने से देय • वस्तु का दुरुपयोग ही होता है । सम्पन्न को देने से न तो करुणा, दया, अनुकम्पा, सहानुभूति, उदारता या आत्मीयता का गुण ही विकसित होगा और न पुण्योपार्जन ही होगा। कहा भी है - "वृथा वृष्टिः समुद्रेषु, वृथा तृप्तेषु भोजनम् । वृथा दानं समर्थस्य, वृथा दीपो दिवाऽपि च ॥" - समुद्रों में पानी लबालब भरा रहता है, वहाँ वृष्टि वृथा है। जिन्होंने छककर भोजन कर लिया है, उन्हें और भोजन खिलाना वृथा है। दिन में सूर्य का प्रकाश होने पर भी दीपक जलाना व्यर्थ है । जो स्वस्थ है, उसे औषध देना भी फिजूल है। इसी प्रकार जो धन, साधन आदि सब बातों से समर्थ हैं, उन्हें दान देना भी व्यर्थ है। - भारतीय संस्कृति के मूर्धन्य ग्रन्थ महाभारत में भी यही बात बताई गई है - "मरुस्थल्यां यथावृष्टिः क्षुधाते भोजनं यथा । दरिद्रे दीयते दानं, सफले पाण्डुनन्दन ! दरिद्रान्भर कौन्तेय ! मा प्रयच्छेश्वरे धनम् । व्याधितस्यौषधं पथ्यं निरुजस्य किमौषधम् ॥"
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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