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________________ १७४ दान : अमृतमयी परंपरा (ii) अनुकम्पादान : स्वरूप और उद्देश्य स्थानांगसूत्र में दस प्रकार के दानों की एक संग्रहणी गाथा दी गई है, वह इस प्रकार है अणुकंपा संगहे चेव, भये कालुषितेति य । लज्जाते गारवेणं च, अधम्मे पुण सत्तमें। धम्मे य अट्ठमे वुत्ते, काहीति य कतंति य ॥ १ . दान के दस भेद हैं - (१) अनुकम्पादान, (२) संग्रहदान,(३) भयदान, (४) कारुण्यदान, (५) लज्जादान, (६) गौरवदान, (७) अधर्मदान, (८) धर्मदान, (९) करिष्यतिदान, और (१०) कृतदान । सर्वप्रथम अनुकम्पादान है । वास्तव में दान का मूलाधार ही अनुकम्पा है। अनुकम्पा दान का प्राण है । जब किसी दुःखी या पीड़ित प्राणी के प्रति अनुकम्पा जागती है, सहानुभूति पैदा होती है, सहृदयता का प्रादुर्भाव होता है, आत्मीयता की संवेदना होती है, तो सहसा कुछ सहायता करने की हृदय में भावना उद्भूत होती है, उसे कुछ दे देने के लिए मन मचल उठता है, उस दीनहीन, पीड़ित व्यक्ति के दुःख को अपना दुःख समझकर उस दुःख को निकालने की तीव्र उत्कण्ठा जागती है, उसे अनुकम्पादान कहते हैं। आचर्य श्री उमास्वातिजी ने अनुकम्पादान का स्पष्ट लक्षण बताया है - "कृपेणऽनाथदरिद्रे, व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते । यद्दीयते कृपार्थादनुकम्पात् तद्भवेद् दानम् ॥" अनुकम्पादान वह है, जो कृपण (दयनीय), अनाथ, दरिद्र, संकटग्रस्त, रोगग्रस्त एवं शोक पीड़ित व्यक्ति को अनुकम्पा लाकर दिया जाता है । तात्पर्य यह है कि जो दान अपनी अपेक्षा अधिक दुःखी के दुःख को देखकर अनुकम्पा भाव से दिया जाता है, वह अनुकम्पादान है। इसे दूसरे शब्दों में करुणायुक्त दान, दयापूर्वक दान या सहानुभूतियुक्त दान भी कहा जा सकता है। अनुकम्पादान भी तभी सफल होता है, जबकि उसमें जाति, कुल, धर्म, सम्प्रदाय, प्रान्त, राष्ट्र आदि १. स्थानांग. १०, सूत्र ४७५
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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