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दान के भेद-प्रभेद
प्राप्त करता है । ९
सूत्रकृतांग में बताया है कि श्रमण निर्ग्रन्थों का शुद्ध निर्दोष आहार आदि १४ प्रकार का दान देनेवाला सद्गृहस्थ दाता ( श्रमणोपासक) आयुष्य पूरा होने पर स्वर्ग में महान ऋद्धि सम्पन्न सुख-वैभवशाली देवता होता है । २
जिन जीवों ने एक बार भी सुपात्र को आहारदान दिया है, वे मिथ्यादृष्टि होते हुए भी भोगभूमि के सुखों का उपभोग कर स्वर्ग सुख को प्राप्त करते हैं । सुपात्र के फल के सम्बन्ध में अनेक उदाहरण मिलते हैं, यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं
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महाविदेह क्षेत्र में हर समय तीर्थंकर विद्यमान रहते हैं । उनके अनुयायी श्रमण - श्रमणी भी रहते हैं। एक बार मुनियों का एक समुदाय विहार करता हुआ चला जा रहा था। उनमें से एक मुनि पीछे रह गये । वे मार्ग भूल गये । पशुओं के पद चिन्हों को देखते-देखते वे चलने लगे । परन्तु आगे जाकर वह रास्ता भी `बन्द हो गया | मुनि एक भयंकर जंगल में फँस गये । रास्ता भूल जाने की परेशानी के साथ ही असह्य गर्मी के कारण उनका कण्ठ प्यास से सूखा जा रहा था । निर्जन वन में कोई मनुष्य भी नहीं दिखाई दे रहा था, जिससे वे रास्ता पूछ ले। मुनि ने सोचा - " अब यह शरीर रहने वाला नहीं। इसलिए समाधिमरणपूर्वक ही इसे छोड़ना उत्तम है ।" इतने में अचानक एक बढ़ई उधर से निकला । उसने भयंकर वन में मुनि को देखा तो सोचा - "यहाँ यह मुनि कैसे बैठें है ?" देखते ही उसका हृदय हर्षित हो उठा। पास में आकर वन्दन करके बोला - 'स्वामिन् ! आप यहाँ कैसे पधार गये ? पधारिए मेरे साथ शुद्ध आहार- पानी ग्रहण करिए । " मुनि बोले 'भाई ! मैं रास्ता भूल गया । इस घोर जंगल में फँस गया । तुम कौन हो ? और यहाँ कैसे आए ?" बढ़ई बोला- "मुनिवर ! मैं बढ़ई हूँ । यहाँ जंगल में लकड़ियाँ काटने आया हूँ । मेरे साथ बहुत बड़ा काफला है । आप मेरे डेरे पर पधारिये और अपने लाए हुए हमारे भोजन में से कुछ ग्रहण कीजिए ।"
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१. कहणं भंते ! जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ?
गोयमा ! नो पाणे अइवाइ वा, नो मुसं वाइवा, तहारूवं समणं वा मांहणं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्ता जाव अन्नयरेणं पीइकारएणं असणं पाणं खाइमं पडिलाभित्ता एवं खलु जीवा जाव पकरेंति - भगवतीसूत्र श. ५ उ. ६
२. महड्डिएसु महज्जइएसु जाव महासुक्खेसु..... । - सूत्रकृतांग २ / २ / ३९