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________________ १७२ दान : अमृतमयी परंपरा मुनि उनके डेरे पर पहुँचे और बढ़ई ने भक्तिभावपूर्वक आहार-पानी दिया । दान के बदले में उसे कुछ भी पाने की भावना न थी। मुनि ने आहार किया और पेड़ के नीचे बैठकर उस श्रद्धालु बढ़ई को उपदेश दिया । उपदेश क्या था- शरीर और आत्मा के भेदविज्ञान का बोध था- "त्याग में ही सुख है, तृष्णा में दुःख है । आत्मा को समझकर अपने आत्मस्वरूप में रमण करने से ही भवभ्रमण मिट सकता है। जहाँ राग-द्वेष है, वहाँ अधर्म है, वीतरागता ही धर्म है। समस्त प्राणियों को आत्मभूत समझो। किसी भी जीव की हिंसा, असत्य, चोरी आदि करना अपने पैरों पर कुल्हाडी मारना है --" मुनि का उपदेश सुनते-सुनते बढ़ई तन्मय हो गया । वह उनकी हितैषिता, निःस्पृहता, त्यागभाव, अपरिग्रहवृत्ति आदि पर मुग्ध हो गया । मन ही मन कहा- "सच्चे साधु तो ये हैं जो बिना कुछ पैसा लिए यथार्थ मार्ग बताते है।" अतः भावविभोर होकर बढ़ई ने कहा- "पधारो मुनिराज ! मैं आपके साथ रास्ता बताने चल रहा हूँ। यह पहाडी मार्ग है। बिना बताए आप पार नहीं कर सकेंगे।" मोक्षमार्ग बताने वाले मुनि को द्रव्यमार्ग बताने बढ़ई साथ में चला । काफी दूर चलने के बाद मुनि ने कहा- "भाई ! अब आगे मैं स्वयं चला जाऊंगा। अब तुम्हें मेरे साथ आने की जरूरत नहीं, वैसे मैं भी तुम्हें संसारसागर से तिरने का मार्ग बताता हूँ। सम्यग्दर्शनरूपी बीज देता हूँ। इसे सुरक्षित रखना। इससे तुम्हारा भवभ्रमण मिट जाएगा, हृदय में सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की शरण लेना, तुम्हारा उद्धार हो जाएगा।" मुनि ने बोध देकर बढ़ई के हृदय में सुधर्म के बीज बो दिये। इस सुपात्रदान के फलस्वरूप बढ़ई सम्यग्दर्शन पाकर वहाँ से शरीर छोडकर वैमानिक देव बना । फिर देवलोक से च्यवन कर भगवान ऋषभदेव के पौत्र के रूप में उस बढ़ई के जीव ने जन्म लिया । भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचीकुमार बना । यह कालचक्र के तीसरे आरे की बात है । एक दिन भगवान ऋषभदेव से भरत चक्रवर्ती ने पूछा- "भगवन् ! इस धर्म परिषद् में क्या कोई योग्यतम महापुरुष है?" परिषद् के बाहर तुम्हारा पुत्र मरीचिकुमार मेरे ही समान चौबीसवाँ तीर्थंकर बनेगा।" यह है सुपात्रदान का फल । इसी प्रकार भगवान ऋषभदेव को एक वर्ष के दीर्घकालीन अभिग्रह (तप) के पारणे में इक्षुरस का दान श्रेयांसकुमार (उन्हीं के पौत्र) ने दिया था, जिसका महाफल भी उन्हें प्राप्त हुआ।
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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