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दान : अमृतमयी परंपरा
है। यदि दाता सम्यग्दृष्टि है तो उसे स्वर्ग या मोक्षरूपी लक्ष्मी के योग्य बना देता है और यदि दाता मिथ्यादृष्टि है तो उसे अभीष्ट विषयों की प्राप्ति करा देता है । सुपात्रदान के फल के विषय में एक संवाद है - भंते! श्रमणोपासक (श्रावक) यदि तथारूप श्रमण - माहन को प्रासुक - एषणीय आहार देता है, तो उसे क्या लाभ होता है ?१
गौतम ! वह एकान्त (सर्वथा) कर्मनिर्जरा (कर्मक्षय) करता है, लेकिन किञ्चित् मात्र भी पापकर्म का बन्ध नहीं करता ।
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एक जैनाचार्य सिन्दूरप्रकरण (७७) में भी इसी बात का समर्थन करते हैं - सुपात्र को दिया हुआ पवित्र धन (द्रव्य) मुक्तिरूपी लक्ष्मी को देने वाला होता
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है।
अभिदान राजेन्द्रकोष के अनुसार सामान्य रूप से सुपात्र को दान देकर दाता पुष्यानुबन्धी पुण्य का उपार्जन करता है, किन्तु पापानुबन्धी पुण्य या पापानुबन्धी पापकर्म का बन्ध नहीं करता, बल्कि पूर्वबद्ध पापकर्म से मुक्त हो जाता है।
भगवती सूत्र मे भगवान महावीर और गौतम का इस सम्बन्ध में एक और संवाद मिलता है। गौतम गणधर भगवान महावीर से पूछते हैं - 'भगवन् ! जीव शुभ (सुखोपभोग सहित, अकाल मृत्यु से रहित) दीर्घ आयुष्य किन-किन कारणों से प्राप्त करता है ?' इसके उत्तर में वे जवाब देते हैं - 'गौतम ! जो व्यक्ति जीवहिंसा नहीं करता, असत्य नहीं बोलता, श्रमण- श्रावकों का गुणानुवाद या सत्कार-सम्मान करता है, उन्हें मनोज्ञ पथ्यकारक भोजन - पानी, पकवान, मुखवास आदि चतुर्विध आहार देता है; वह सुखपूर्वक पूर्ण करने योग्य दीर्घायु
१. समणोवासगस्सणं भंते! तहारूवं समणं वा
माहणं वा फासुएसणिज्जेण असण- पाण- खाइम - साइमेणं पडिलाभेमाणस्स कि कज्जइ ? - भगवतीसूत्र ८/६
२. निर्वाणश्रियमातनोति निहितं पात्रे पवित्रं धनम् । - सिन्दुरप्रकरण ७७
३. शुद्धं दत्वा सुपात्राय सानुबन्धशुभार्जनात् । सानुबन्धं न बध्नाति, पापबद्धं च मुंचति ॥ भवेत्पात्रविशेषे वा कारणे वा तथाविधे । अशुद्धस्यापि दानं हि, द्वयोर्लाभायनान्यथा ॥
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अभिधानराजेन्द्रकोष, पृष्ठ २४९८