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________________ सप्तम अध्याय दान के भेद-प्रभेद एन्द्रशर्मप्रदं दानमनुकम्पासमन्वितम् । भक्त्या सुपात्रदानं तु मोक्षदं देशितं जिनैः ॥१॥ - "अनुकम्पायुक्त दान इन्द्र संबंधी सुख प्रदान करता है । भक्ति से युक्त सुपात्रदान तो मोक्ष प्रदान करता है" - ऐसा जिनेश्वर भगवंतों ने कहा है। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने दान के दो भेद बताएँ हैं । सुपात्रदान और अनुकम्पा दान । पहले हम सुपात्रदान पर विचार करेंगे। (1) सुपात्रदान रत्नसार में बताया गया है कि सत्पुरुषों को यथाविधि दिया गया दान कल्पवृक्ष के समान फलप्रद होता है और कुपात्रों को दिया गया दान शव के विमान को श्रृंगारित करने के समान शोभा देने वाला यानी क्षणिक कीर्ति दिलाने वाला होता है, विशेष लाभ के कारण नहीं होता। ___सागार धर्मामृत में बताया गया है कि- जो आहार गृहस्थ ने स्वयं अपने लिए बनाया हो, जो प्रासुक हो या त्रस एवं स्थावर जीवों से रहित हो, ऐसे भक्तपानादि को गृहस्थ के द्वारा दिये जाने पर आत्म-कल्यार्थ ग्रहण करने वाला महाव्रती साधु केवल अपना ही नहीं, अपितु उस दाता का भी कल्याण करता १. द्वात्रिंद् - द्वात्रिंशिका. श्लोक १ २. यद्भक्तं गृहिणाऽत्मने कृतमपैतैकाक्षजीवं त्रसैर, निर्जीवैरपि वर्जितं तदशनाद्यात्मार्थसिद्धयै यतिः । युञ्जनुद्धरति स्वयमेव, न परं किं, तहि सम्यग्दृशम्, दातारं द्युशिवश्रिया च युङ्क्ते भोगैश्च मिथ्यादृशम् ।। -सागारधर्मामृत, अ.५, श्लोक ६६
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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