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दान : अमृतमयी परंपरा धर्मरुचि ने ज्यों ही लाये हुए आहार का पात्र अपने गुरु को दिखाया, त्यों ही गरु ने देखते ही कहा - "वत्स? यह तो कड़वे तुम्बे क़ा शाक है। इसे तुम गाँव के बाहर ले जाकर निरवद्य स्थान में सावधानी से डाल आओ।" परन्तु धर्मरुचि अनगार ने गांव के बाहर जीवजन्तु से रहित निरवद्य स्थान देखकर ज्यों ही एक बूंद शाक के रस की डाली, त्यों ही वहा हजारों चींटिया आ गई । मुनिवर ने सोचा - "ओ हो ! यह तो बड़ा अनर्थ होगा, मेरे निमित्त से ये चीटियाँ मर जायेगी इससे तो अच्छा हैं, मैं ही इस आहार को उदरस्थ कर जाऊँ। मेरे उदर से बढ़कर निरवद्य स्थान कौन-सा होगा?" बस मुनिवर ने वह कड़वे तुम्बे का शाक उदरस्थ कर लिया। कुछ ही समय में मुनिवर के शरीर में विष ने प्रभाव डालना शुरु किया । समभाव से वेदना सहकर मुनि ने अपना शरीर
छोड़ा।
यहाँ यद्यपि नागश्री ने दान एक उत्कृष्ट पात्र को दिया था, किन्तु भावना खराब थी और वस्तु भी घृणित थी, इसलिए वह तामस हो गया।
इस प्रकार ये तीनों प्रकार के दान, दान भावना और व्यवहार की दृष्टि से उत्तम, मध्यम और जघन्य हैं। यही बात सागरधर्मामृत में स्पष्ट कही है - "सात्त्विकदान सर्वोत्तम है, उससे निकृष्ट दान राजसदान है और सब दानों में तामसदान जघन्य है।''१
१. उत्तमं सात्त्विकं दानं, मध्यमं राजसं भवेत् ।
दानानामेव सर्वेषां, जघन्य तामसं पुनः ॥ – सागरधर्मामृत ५/४७