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भावना के अनुसार दान का वर्गीकरण
है, जो दिखने में तो बहुत ही अच्छी और स्वादिष्ट लगती है, परन्तु वह आदाता के प्राण संकट में डाल देती है ।
जैनशास्त्र ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र में इस विषय में एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है -
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नागश्री एक सम्पन्न ब्राह्मण परिवार की गृहिणी थी । वह बाहर से जैसी सुन्दर और सुघड़ लगती थी, वैसी हृदय से नहीं थी । उसके मन में सदा यही भावना रहती थी कि "मैं घर में सबसे अधिक सुघड़ कहलाऊं और परिवार के सब लोग मुझे श्रेष्ठ महिला कहें ।" धर्म-कर्म में उसकी बिल्कुल रुचि नहीं थी और न ही साधु-सन्तों पर उसकी कोई श्रद्धा थी । वह अविवेकी और आलसी थी ।
एक दिन घर में रसोई बनाने की उसकी बारी थी । अपने को अधिक चतुर कहलाने की दृष्टि से उसने खूब मिर्च-मसाले डालकर छौंक देकर स्वादिष्ट व्यंजन बनाया । उसने बनाया तो था तरबूज का शाक समझकर, किन्तु ज्यों ही उसने जरा-सा हाथ में लेकर व्यंजन को चखा तो, त्यों ही अत्यन्त कड़वा तुम्बे का शाक प्रतीत हुआ। वह मन ही मन बहुत भयभीत हुई और सोचा - "इसे फेंक देने से तो मेरी बहुत बड़ी तौहीन होगी, परिवार के मुखिया की डांट भी सहनी होगी, इसे अगर कोई ले जाये तो उसे सारा का सारा दे दूं।" उसके भाग्य से उसी दिन धर्मरुचि नामक मासिक उपवास के तपस्वी अनगार भिक्षा के निमित्त नाग श्री के यहां अनायास ही पहुंच गये। नागश्री की श्रद्धा तो मुनिराज पर नहीं थी, किन्तु उसे तो वह शाक किसी तरह देकर बला टालनी थी । अत: नागश्री ने मुनिराज की खूब आवभगत की। उन्हें सत्कारपूर्वक अपने रसोईघर में ले गई और मुनि ने ज्यों ही आहार लेने के लिए पात्र नीचे रखा, नागश्री ने मुनिराज के बस - बस कहते-कहते सारा का सारा वह कड़वे तुम्बे का शाक मुनिं के पात्र में उंडेल दिया । मुनिवर समभाव से वह आहार लेकर अपने स्थान पर पहुँचे । नागश्री ने सोचा – “धूरे पर डालने से तो अच्छा है, साधु के पात्र में डाल दिया मैंने । कौन किसको कहता है ? अगर साधु का कुछ हो गया तो भी यह साधु किसी का नाम लेंगे नहीं ? इसलिए मेरा बचाव भी हो जायेगा । साधु हो सो हो । "क्या करूं ?"
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