SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ दान : अमृतमयी परंपरा सब उद्योग दास और भृत्य से कराये गये हों, ऐसे दान को तामसदान कहा है।'' कठोपनिषद् में एक कथा आती है – नचिकेता की । नचिकेता के पिता वाजिश्रवा ऋषि ने एक बार दान देने का विचार किया। उसने सोचा - "ये बूढ़ी गायें न तो दूध देती है और न ही बछड़ा-बछड़ी देती है, न ही और किसी काम में आती है। उलटे, इनके लिए चरने की व्यवस्था करनी पड़ती है। अतः क्यों न इन्हें ऋषियों को दान में दी जायें, जिससे दान का पुण्य भी मिलेगा और इन्हें चराने एवं संभालने की झंझट से भी छुट्टी मिल जायेगी।" यह सोचकर वाजिश्रवा बूढी गायें ऋषियों को दान देने लगा। नचिकेता समझदार बालक था। उसने पिताजी को बूढी गायें दान में देते देखकर कहा - "पिताजी ! आप यह क्या कर रहे हैं ? इन बूढ़ी गायों को दान में क्यों दे रहे हैं ? अगर दान ही देना हो तो अच्छी दुधारू गाये दान में दें।" इस पर नचिकेता का पिता उस पर बहुत रुष्ट हो गया। पिताजी ने नचिकेता को फटकार दिया - "बेटा ! तू क्या समझता है, इन बातों में ! ये गायें एक दिन यों ही मर जायेंगी, इसकी अपेक्षा मैं इन्हें पहले से ही दान में दे दूंगा तो दान का पुण्य भी मिलेगा और इनके पालनपोषण की झंझट से भी मुक्ति मिल जायेगी।" नचिकेता के गले पिता की बात नहीं उतरी । उसने झुंझलाकर पिता से कहा – “पिताजी ! मुझे आप किसको देंगे?" पिताने कहा - "तुझे मैं यम को देता हूँ।" नचिकेता पिता की बात से नाराज नहीं हुआ । कहते हैं, वह सीधा यमराज के द्वार पर पहुंच गया। नचिकेता के पिता द्वारा वृद्ध गायों का दान वास्तव में तामसदान था। क्योंकि वह अनुपयोगी देय वस्तु देकर बला टालना चाहता था । दूसरी विशेष बात इस लक्षण में बताई गई है कि वह दान तिरस्कारपूर्वक दिया गया हो, मन में आदाता के प्रति दाता की बिलकुल श्रद्धा या भावना न हो। कई दफा ऐसा तामसदानी तिरस्कृत भाव से ऐसी चीज आदाता को दे देता १. पात्रापात्रसमावेक्षमसत्कारमसंस्तुतम् । दासभृत्यकृतोद्योगं दानं तामसमूचिरे ॥ - सागारधर्मामृत ५/४७
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy