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भावना के अनुसार दान का वर्गीकरण
१६५ "जो दान केवल अपने यश के लिए दिया गया हो, जो थोडे समय के लिए ही सुन्दर और चकित करने वाला हो, जो दूसरों से दिलाया गया हो अथवा दूसरों की वस्तु अपने नाम से दी गई हो, उस दान को राजसदान कहा है।"१
इस दान का लक्ष्य मुख्यतया अधिकाधिक यश-प्राप्ति या शोभा का दिखावा होता है, इसलिए इसमें दीन-दुःखियों को देने का अवकाश बहुत ही कम होता है। सात्त्विकदान और राजसदान के अन्तर को समझना आवश्यक है।
सात्त्विकदान में भावना है, दूसरे के दुःख में सहानुभूति का कोमल स्वर है, वह उत्साह और सहृदयता से दिया गया है; जबकि राजसदान में दान देने की भावना मरी हुई है। वैगार समझकर, एहसान से, शर्माशर्मी और बहाना बनाकर दिया जाता है। दान क्या, एक प्रकार से आदाता पर एहसान है। तामसदान का लक्षण :
अब तामसदान की पहचान करें । तामसदान सात्त्विक से तो निकृष्ट है ही, राजसदान से भी निकृष्ट है । इस दान में मनुष्य अपनी इंसानियत खो देता है, अविवेक से देता है, दूसरे को कायल करके देता है, एहसान का बोझ इतना लाद देता है या गर्व का इतना वजन डाल देता है कि लेने वाला बिलकुल दब जाता है। इसीलिए गीता में तामसदान का लक्षण किया गया है -
"जो दान तिरस्कारपूर्वक अवज्ञा करके, अयोग्य देश और काल में, कुपात्रों (मांसाहारी, शराबी, चोर, जार, जुआरी आदि निन्द्य, नीच कर्म करने वालों) को दिया जाता है, वह तामसदान कहलाता है।"२
तामसदान में तिरस्कार, अपमान एवं अवज्ञा तो होती ही है, साथ ही उस दान में देश, काल और पात्र नहीं देखा जाता, यानी तामसदानी अविवेक
और अज्ञान के तमस् से आच्छन्न रहता है। इसीलिए तामसदान को निकृष्ट दान कहा गया है। सागारधर्मामृत (५/४७) में तामसदान का लक्षण किया गया है -
"जिस दान में पात्र-अपात्र का कोई भी विचार न किया गया हो, जिसमें आदाता का कोई सत्कार नहीं किया जाता, जो दान निन्द्य हो और जिसके १. यदात्मवर्णन प्रायं क्षणिकाहार्यविभ्रम् ।
परप्रत्ययसम्भूतं दानं तद् राजसं मतम् ॥ - सागारधर्मामृत २. अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहतम् ॥ - भगवद्गीता, अ. १७, श्लो. २२