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________________ १६४ दान : अमृतमयी परंपरा हो गये, वे संसार में अजर-अमर हो गये। इस प्रकार सात्त्विकदान के दोनों लक्षणों में निम्नलिखित गुण प्रतिफलित होते हैं - (१) देश, काल और पात्र का विवेक । (२) दान के बदले किसी भी प्रकार के प्रतिदान की भावना नहीं । (३) अहंकार, अज्ञान, लोभ, स्वार्थ, भय आदि से रहित दान । (४) लेने वाले का हित सोचा जाये। (५) दान के साथ श्रद्धा, भक्ति, विनय, नम्रता आदि गुण हों। रन्तिदेव के दान में न्यूनाधिक ये पाँचों गुण थे, इसलिए उसे हम सात्त्विकदान की कोटि में परिगणित कर सकते हैं। राजसदान का लक्षण : सात्त्विक से निम्नकोटि का दान राजस कहलाता है। भगवद्गीता में राजसदान का लक्षण बताया है - "जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अर्थात् बदले में अपना सांसारिक कार्य सिद्ध करने की आशा से अथवा फल का उद्देश्य रखकर दिया जाता है, वह दान राजस कहलाता है।"१ । राजसदान दान तो है, परन्तु सांसारिक कार्य के प्रयोजन से दिया जाता • है। राजसदान में उन सब दानों की गणना हो जाती है, जो किसी प्रसिद्धि, वाहवाही अथवा यशकीर्ति लूटने की दृष्टि से दिया जाता है । ऐसी वृत्ति का व्यक्ति दान तो उतना ही करता है, जितना सात्त्विक वृत्ति का व्यक्ति करता है, लेकिन दोनों के दान के परिणाम में महदन्तर होता है। सात्त्विक दान का फल कर्मों की निर्जरा हो सकता है, जबकि राजसदान का परिणाम फलाकांक्षा युक्त होने से कर्म निर्जरा नहीं होता, अधिक से अधिक पुण्य-प्राप्ति हो सकता है। सात्त्विकदानी प्रसन्न मन से दान देता है, जबकि राजसदानी अप्रसन्नता से, अनमने भाव से, दबाव से या लोभ से देता है। इसीलिए जैनधर्म के महान् विद्वान् पं. आशाधर जी ने राजसदान का लक्षण किया है - १. यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ - गीता, अ. १७ / २१
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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