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दान : अमृतमयी परंपरा
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भी महाफल प्रदान करता है । जिस प्रकार धरती में बोया गया छोटा-सा वटबीज भी समय पर एक विशाल वृक्ष के रूप में चारों ओर फैल जाता है, जिसकी छाया में हजारों प्राणी सुख भोग करते हैं, उसी प्रकार विधि सहित छोटा दान भी महाफल देता है।" दान के फल के सम्बन्ध में आचार्य ने बहुत सुन्दर कहा है" जैसे मेघ से गिरने वाला जल एक रूप होकर भी नीचे आधार को पाकर अनेक रूप में परिणित हो जाता है, वैसे ही एक ही दाता से मिलने वाला दान विभिन्न उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रों को पाकर विभिन्न फल वाला हो जाता है।'' कितनी सुन्दर उपमा दी गई है । अपात्र को दिये गये दान के सम्बन्ध में आचार्य ने कहा है – “जैसे कच्चे घड़े में डाला गया जल अधिक देर तक नहीं टिक पाता और घड़ा भी फूट जाता है, वैसे ही विगुण अर्थात् अपात्र को दिया गया दान भी निष्फल हो जाता है और लेने वाला नष्ट हो जाता है।" इस प्रकार आचार्य अमितगति ने अपने श्रावकाचार ग्रन्थ में और उसके दशम परिच्छेद में दान, दान का फल आदि विषय पर बहुत ही विस्तार के साथ विचार किया है 1 एकादश परिच्छेद में आचार्य ने विस्तार के साथ अभयदान, अन्नदान, औषधदान और ज्ञानदान इन चार प्रकार के दानों का वर्णन किया हैं । वस्तुतः देने योग्य जो वस्तु है, वे चार ही होती है अभय, अन्न, औषध और ज्ञान अर्थात् विवेक । अभय को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । अभय से बढ़कर अन्य कोई इस जगत् में हो नहीं सकता । भयभीत को अभय देना ही परम दान है । अन्न अर्थात् आहार देना भी एक दान है। यह शरीर, जिससे मनुष्य धर्म की साधना करता है, बिना अन्न के कैसे टिक सकता है ? संयमी को, त्यागी को भी अपने संयम को स्थिर रखने के लिए अन्न की आवश्यकता पड़ती है । अन्न के अभाव में साधना भी कब तक चल सकती है। कितना भी बड़ा तपस्वी हो, कितना भी लम्बा तप किया जाये आखिर अन्न की शरण में तो जाना ही पड़ता है । स्वस्थ शरीर से ही धर्म और कर्म किया जा सकता है। रुग्ण काया से मनुष्य न धर्म कर सकता है और न कोई शुभ या अशुभ कर्म ही कर सकता है। आरोग्य परम सुख है। उसका साधन है औषध । अतः शास्त्रकारों ने औषध को भी दान में परिगणित किया है, देय वस्तुओं में उसकी गणना की है । ज्ञान आत्मा का गुण है । वह तो सदा ही संप्राप्त रहता है । अत: ज्ञान का अर्थ है विवेक । विवेक का अर्थ है - करने योग्य और न करने योग्य का निर्णय
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