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भारतीय संस्कृति में दान
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में दान से सम्बन्ध समस्त सिद्धान्तों का विस्तार से वर्णन किया है । अन्य विषयों की अपेक्षा दान का विचार बहुत ही लम्बा है। दान के सम्बन्ध में सूक्ष्म से भी सूक्ष्म विचार प्रस्तुत किये गये हैं ।
नवम परिच्छेद के प्रारम्भ में ही आचार्य ने कहा है – दान, पूजा, शील और उपवास भवरूप वन को भस्म करने के लिए ये चारों ही आग के समान हैं। पूजा का अर्थ है - जिनदेव की भक्ति । भाव के स्थान पर पूजा का प्रयोग आचार्य ने किया है। दान क्रिया के पाँच अंग माने गये हैं- दाता, देय वस्तु, पात्र, विधि और मति । यहाँ पर मति का अर्थ है - विचार । बिना विचार के, बिना भाव के दान कैसे दिया जा सकता है ? आचार्य अमितगति ने दाता के सात भेदों का उल्लेख किया है - भक्तिमान हो, प्रसन्नचित हो, श्रद्धावान हो, विज्ञान सहित हो, लोलुपतारहित हो, शक्तिमान हो और क्षमावान हो । 'विज्ञान वाला हो' से अभिप्राय यह है कि दाता द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का ज्ञाता हो । अन्यथा दान की क्रिया निष्फल हो सकती है अथवा दान का विपरीत परिणाम भी हो सकता है। दाता के कुछ विशेष गुणों का भी आचार्य ने अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया है विनीत हो, भोगों में निःस्पृह हो, समदर्शी हो, परीषह सही हो, प्रियवादी हो, मत्सररहित हो, संघवत्सल हो और वह सेवा - परायण भी हो । दान की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य ने कहा है - "जिस घर में से योगी को भोजन न दिया गया हो, उस गृहस्थ के भोजन से क्या प्रयोजन? कुबेर की निधि भी उसे मिल जाये, तो क्या ? योगी की शोभा ध्यान से होती है, तपस्वी की शोभा संयम से होती है, राजा की शोभा सत्यवचन से होती है और गृहस्थ की शोभा दान से होती है।' आचार्य ने यह भी कहा है- "जो भोजन करने से पूर्व साधु के आगमन की प्रतीक्षा करता है । साधु का लाभ न मिलने पर भी वह दान का भागी है ।"
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दान के चार भेद किये हैं अभयदान, अन्नदान, औषधदान और ज्ञानदान । अन्नदान को आहारदान भी कहा गया है और ज्ञानदान को शास्त्रदान भी कहते हैं। पंचमहाव्रतधारक साधु को उत्तमपात्र कहा है, देशव्रत धारक श्रावक को मध्यम पात्रं कहा है, अविरत सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा है । दशम परिच्छेद के प्रारम्भ में पात्र, कुपात्र और अपात्र की व्याख्या की है । विधि सहित दान का महत्त्व बताते हुए आचार्य ने कहा – “विधिपूर्वक दिया गया थोड़ा दान
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