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________________ भारतीय संस्कृति में दान १५९ करना। यह शास्त्र के द्वारा ही हो सकता है। जिसने शास्त्र नहीं पढ़े, उसे अन्धा कहा गया है। विधि और निषेध का निर्णय शास्त्र के द्वारा ही होता है । अतः शास्त्र को भी दान कहा गया है। इतिहास के संदर्भ में दान : ___ भारत देश एक धर्म-प्रधान देश रहा है। भारत के जन-जन के जीवन में धर्म के संस्कार गहरे और अमिट हैं । यहाँ का मनुष्य अपने कर्म को धर्म की कसौटी पर कसकर देखता है । धर्म उसे अत्यन्त प्रिय रहा है । धर्म के व्याख्याकार ऋषि एवं मुनि सदा नगर से दूर वनों में रहा करते थे । गुरुकुल और आश्रमों की स्थापना नगरों में नहीं वरन् दूर वनों में की गई थी । गुरुकुल और आश्रमों में हजारों छात्र तथा हजारों साधक रहा करते थे। भोजन और वस्त्र आदि की व्यवस्था तथा छात्रों के अध्ययन में किसी प्रकार का विघ्न न हो और साधकों की साधना में किसी प्रकार की बाधा न पड़े इसलिए राजा सेठ-साहुकार गुरुकुलों को और आश्रमों को दान दिया करते थे । दान का प्रारम्भ इन गुरुकुलों और आश्रमों से ही हुआ था। फिर मन्दिर आदि धर्म-स्थानों को तथा तीर्थभूमि को भी दान की आवश्यकता पड़ी । दान के क्षेत्रों का नया विकास होता रहा और दान की सीमा का विस्तार भी धीरे-धीरे आगे बढ़ता ही रहा । इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भारत में तीन विश्वविद्यालय थे- नालन्दा, तक्षशिला और विक्रमशिला । इन विश्वविद्यालयों में हजारों छात्र अध्ययन करते थे । ये सब विद्यालय भी दान पर ही जीवित थे, दान पर ही चला करते थे । दान के बिना इन संस्थाओं का जीवित रहना ही सम्भव नहीं था। राजा और सेठ-साहूकारों के उदार दान से ही ये सब चलते रहते थे। साहित्य रचनाओं में भी दान की आवश्यकता पड़ती थी । अजन्ता की गुफाओं का निर्माण, आबू के कलात्मक मन्दिरों का निर्माण बिना दान के कैसे हो सकता था? दान एक व्यक्ति का हो या फिर अनेक व्यक्तियों के सहयोग से मिला हो. पर सब दान पर ही अवलम्बित था। कवि को यदि रोटी की चिन्ता बनी रहे, तो वह काव्य की रचना कर ही नहीं सकता । कलाकार यदि जीवन की व्यवस्था में लगा रहे, तो कैसे कला का विकास होगा? कवि को, दार्शनिक को, शिल्पी को और कलाकार को चिन्ताओं से मुक्त करना ही होगा, तभी वह निर्माण कर सकता
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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