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भारतीय संस्कृति में दान
युधिष्ठिर : यदि एकाद सेर की जरूरत हो तो दे सकता किन्तु मन लकड़े के लिए तो थोड़ा इंतजार करना पडेगा ।'
युधिष्ठिर की परीक्षा लेने के बाद दोनों ब्राह्मण वेश में कर्ण के पास पहुँचे और उसको भी यही कहा : 'हमें एक मन चंदन के सूखे लकड़े चाहिए।' कर्ण : 'अभी तो बरसात चालु है, परन्तु ब्राह्मण देवता ठहरिए ! मेरे महल के दरवाजे के लकड़े चंदन के हैं और सूखे हैं । ये मैं अभी आपको दे देता हूँ ।'
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ऐसा कह करके कर्ण ने अपने महल के दरवाजे निकाल दिये । पलंग वगैरह दूसरा जो कुछ भी चंदन की लकड़ी से बना हुआ फर्निचर था वह सब निकाल दिया और ब्राह्मण वेशधारी श्रीकृष्ण और अर्जुन की मनोकामना पूर्ण की ।
तब ब्राह्मण वेशधारी श्रीकृष्ण ने कहा : 'कर्ण ! तुमने हमारी इस तुच्छ इच्छा के लिए महेल के दरवाजे क्यों निकाल दिये ?'
कर्ण ने कहा : 'ब्राह्मणदेवता ! किसको पता है कि कल में जीवित रहूँगा या नहीं । इसलिए आज ही इन हाथों से जितना सत्कार्य हो जाए उतना अच्छा है । किसको पता कल मौत आ जाय तो ?
कभी भी आ सकती है, कहीं भी आ सकती है, किसी भी निमित्त से आ सकती है। इस बात को सदैव अपने को याद रखना चाहिए । संस्कृत महाकाव्यों में दान :
संस्कृत साहित्य में महाकाव्यों को दो विभागों में विभक्त किया गया हैलघुत्रयी और बृहतत्रयी । लघुत्रयी में महाकवि कालिदास कृत तीन काव्यों की गणना की गई है – 'रघुवंश', 'कुमारसम्भव' और 'मेघदूत' । मेघदूत एक खण्ड काव्य है, श्रृंगार प्रधान काव्य है । काव्यगत गुणों की दृष्टि से यह श्रेष्ठ काव्य माना गया है। उसमें दान की महिमा के प्रसंग अत्यन्त विरल रहे हैं, फिर भी शून्यता नहीं रही । काव्य का नायक यक्ष अपने मित्र मेघ से कहता है - "हे मित्र ! याचना करनी हो, तो महान् व्यक्ति से करो, भले ही निष्फल हो जाये, परन्तु नीच व्यक्ति से कभी कुछ न मांगो। भले ही वह सफल भी हो जाये ।"