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________________ १४८ दान : अमृतमयी परंपरा काल करे सो आज कर आज करे सो अब, ' अवसर बीता जात है बहुरी करेंगे कब। पांच पांडवों के पास भिक्षा मांगने जाने वाले कोई भी खाली हाथ वापस नहीं लौटता । एक बार एक ब्राह्मण युधिष्ठिर के पास दान लेने गया । युधिष्ठिर काम में व्यस्त होने से ब्राह्मण को कहा कल आना। ब्राह्मण निराश होकर वापस लौटा-रास्ते में भीम मिला । भीम ने ब्राह्मण से बात सुनी, उसको काफी खेद हुआ। भीम ने आयुधशाला में जाकर शंख फूंका (बजाया) । राज्य के नियमानुसार विजय हो तभी शंख बजा सकते हैं । नागरिकों को आश्चर्य हुआ। शंख की आवाज से पशुओं में भागदौड़ मच गई कि शंख क्यों बजा ? युधिष्ठिर ने भीम से पूछा ? भीम ने कहा - भाई ने कल को जीत लिया इसीलिए मैंने शंख बजाया। युधिष्ठिर ने भीम को पूछा, भाई ! किसने कल को जीत लिया है ? भीम ने ब्राह्मण की बात कही और कहा कि भाई आपने दान के लिए ब्राह्मण को 'कल आना' कहा इससे मैंने सोचा कि आपने काल को जीत लिया है, आप तो सत्यवचनी हो, युधिष्ठिर ने भूल सुधारने के लिए ब्राह्मण को वापस बुलाया और तुरंत दान दिया। श्रीकृष्ण ने योगशक्ति से अर्जुन को ब्राह्मण का रूप प्रदान किया और स्वयं भी ब्राह्मण के रूप में परिवर्तित होकर के पहुंचे महाराजा युधिष्ठिर के पास। वहाँ जाकर के भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - 'हमारे एक मन चंदन के सूखे लकड़े की जरूरत है। यह तुम्हारे जैसे दाता के पास से ही मिल सकते हैं ऐसा है। दूसरे किसी के पास से नहीं, कारण कि अभी बरसात बरस रही है।' . युधिष्ठिर, 'अभी? अभी सूखे लकड़े कहाँ से लाऊँगा इस बरसात में ? और आपको तो सूखे लकड़े ही चाहिए न ?' श्रीकृष्ण : ‘हाँ, एकदम सूखे चाहिये । हमें यज्ञ के लिए जरूरत है।'
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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